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एन. रघुरामन का कॉलम:अपनी रचनात्मकता को ‘विचारों के स्टेज’ से ‘प्रभाव के स्टेज’ तक ले जाएं!

उनकी उम्र सत्तर साल से अधिक थी और वे बुजुर्गों वाली मेज पर जूते पहनने के लिए बैठे थे। वे जूते में पैर डालने के लिए जूझ रहे थे, जिसका फीता खुला नहीं था। एक महिला (जो उनकी पत्नी लगती थीं) भी उनका हाथ पकड़कर बैठने के लिए संघर्ष कर रही थीं और फीता खोलने की कोशिश कर रही थीं। कई साल पहले मैंने नागपुर के धनतोली में भवानी मंदिर के सामने सड़क किनारे बैठे एक कलाकार की पेंटिंग में ये दृश्य देखा था। हो सकता है उन्हें उस समय मंदिर में आए किसी बुजुर्ग जोड़े से प्रेरणा मिली हो और कलाकार के रूप में इस दृश्य ने उन्हें प्रभावित किया हो। मैं उस समय खुद को उस पेंटिंग से इसलिए जोड़ सका था, क्योंकि मैंने अपनी मां के साथ भी ऐसा ही किया था। वे उस मंदिर में अक्सर आती थीं और सर्वाइकल कैंसर से पीड़ित थीं। वे झुककर पैर चप्पल में डाल नहीं सकती थीं, न ही इससे निकाल पाती थीं। तब मैं उनकी मदद करता था। इसके बाद वे मुझसे देवी के गर्भगृह में जाने से पहले हाथ धोने के लिए कहती थीं। मुझे यह बात पिछले हफ्ते तब याद आई, जब मैंने स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर, रॉबिंसविले, न्यू जर्सी, यूएसए का दौरा किया। ये संभवतः कंबोडिया में अंगकोर वाट के बाद दूसरा सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है, वो भी भारत के बाहर। मंदिर में उन सभी लोगों के लिए जूते की शेल्व्स पर 12 इंच लंबे कई शू-हॉर्न रखे हैं, जिन्हें जूते को छुए बिना उसमें अपना पैर डालने में कठिनाई होती है। मेरे लिए ये एक साधारण विचार को ‘विचारों के स्टेज’ से ‘प्रभाव के स्टेज’ में बदलने जैसा था। काश, दशकों पहले नागपुर के भवानी मंदिर के अधिकारियों ने भी उस कृति को देखा होता और बुजुर्गों को ये सुविधा दी होती। शायद उन दिनों जूते पहनने वाले ही इतने कम थे कि उन पर ध्यान नहीं दिया गया होगा। उस चित्रकार को याद करने का एक और कारण ये है कि मुंबई स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था- जिसे सेटरडे आर्ट क्लास (एसएआरसी) कहा जाता है और जो सड़क पर रहने वाले बच्चों को पेंटिंग सिखाती है- हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में 5,15,000 डॉलर की फंडिंग के लिए मौजूदा शीर्ष पांच दावेदारों में से एक है। मैं पिछले सप्ताह हार्वर्ड गया था। दावेदारों का चयन ‘सामाजिक प्रभाव स्टूडेंट ट्रैक’ के तहत किया गया है, जिन्होंने कला-संस्कृति के संरक्षण, जलवायु परिवर्तन, शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं के महत्वपूर्ण क्षेत्रों को संबोधित किया हो। एसएआरसी की कक्षा 2017-18 में शुरू हुई थी। उन्होंने किसी कलाकृति के सामाजिक-भावनात्मक पहलुओं को समझाने से शुरुआत की, फिर स्टूडेंट्स को मुख्यधारा की शिक्षा पर ले गए। एसएआरसी नगालैंड-कश्मीर सहित भारत के 13 राज्यों में है और इसमें 3,000 से अधिक शिक्षक हैं, इसलिए इसे राष्ट्रपति के इनोवेशन चैलेंज के लिए चुना गया था। ये परियोजना 13 हार्वर्ड स्कूलों के ऐसे इनोवेटर्स का उत्सव मनाती है, जो विचारों को प्रभाव में बदल रहे हैं। 38 देशों के 350 से अधिक आवेदकों में से पांच शीर्ष सेमी फाइनलिस्ट तक पहुंचना वांछित समुदाय को प्रभावित करने की क्षमता दर्शाता है। मुंबई नगरीय निकाय भी मुंबई के 20 सिविक-स्कूलों में कला-शिक्षा कार्यक्रम बनाने और उसे कार्यान्वित करने के लिए एसएआरसी को अनुबंध दे सकता है। इस कार्यक्रम का नेतृत्व रुक्मिणी भाटिया ने किया है, जिन्होंने कक्षा 1 से 5 तक के लिए पाठ्यक्रम तैयार किया था। यदि कोई विचार कार्यान्वयन तक की यात्रा तय करता है तो वो निश्चित रूप से समाज पर प्रभाव डालता है। फंडा यह है कि यदि आप अपने आइडियाज़ को उनके उद्गम के चरण से ‘प्रभाव के स्टेज’ तक नहीं ले जाते हैं, तो वे कागज पर ही रह जाएंगे और देखते ही देखते दफन हो जाएंगे।

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