दिलों पर अनगिनत घाव थे। सीने पर अलाव जल रहे थे। अंधेरे में छिपी रात में रोती हुई गहरी खामोशी अब ओझल होने को है। हम धीरे-धीरे उजाले की ओर जा रहे हैं। पूरब के शफ्फाक पानी में सिंदूरी सलाइयां बहने लग गई हैं। लेकिन स्थायित्व के चेहरे के बिना आखिर कैसे होगी सुबह? लोकसभा चुनाव की आधे से अधिक सीटों पर वोट पड़ चुके हैं। चुनाव किसी दल या पार्टी को चुनने के लिए नहीं, बल्कि सत्ता के स्थायित्व के लिए होना चाहिए। समग्र विकास, उन्नति, प्रगति और शांति की सही तस्वीर सत्ता के स्थायित्व से ही उभर सकती है, चाहे यह देने वाला कोई भी दल हो! याद कीजिए राजीव गांधी के बाद वाला दौर। बोफोर्स का भूत लाकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकार बनाई लेकिन पांच साल नहीं चल पाई। मंडल-कमंडल का शिगूफा छोड़ गए, सो अलग।
फिर वीपी सरकार के गिरते ही चंद्रशेखर की वर्षों पुरानी मुराद पूरी हुई। कांग्रेस के सहयोग से वे प्रधानमंत्री तो बने, लेकिन साल पूरा नहीं कर पाए। कांग्रेस ने समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिरा दी। इस बीच चुनाव हुए। पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने और पूरे पांच साल चले। अयोध्या मामले ने उनकी सरकार भी दोबारा नहीं आने दी। पहले अटलजी की सरकार बनी। वो गिर गई। फिर एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने, वे भी कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। फिर नींद से जगा कर इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाया गया, लेकिन वे भी ज्यादा नहीं चल पाए। गठबंधन के साथ ही सही, लेकिन फिर स्थायी सरकारों का दौर आया। अटलजी की सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। वे देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए, जो अपना कार्यकाल पूरा कर पाए। फिर कांग्रेस का जमाना लौटा। दस साल तक मनमोहन सिंह की सरकार रही। लेकिन यह सरकार भी गठबंधन आधारित ही थी। फिर आए नरेंद्र मोदी। उन्होंने पहली बार भाजपा को पूर्ण बहुमत दिलाया और सरकार बनाई, जिसने कार्यकाल पूरा किया। दोबारा फिर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई और अब मोदी के आने के बाद यह तीसरा चुनाव हो रहा है। इस बार क्या होगा, यह 4 जून को चुनाव परिणाम के साथ ही पता चल पाएगा। दरअसल, चुनावों का बहुत कुछ मर्म वोट-परसेंटेज में छिपा होता है। पहले यह माना जाता था कि ज्यादा वोट-परसेंटेज यानी भाजपा की जीत। ऐसा इसलिए था क्योंकि भाजपा का वोटर जब घर से निकलता है तभी वोट-परसेंटेज बढ़ता है। वर्ना कम वोट-परसेंटेज वाली सीटें कांग्रेस या अन्य के खाते में जाती थीं। कांग्रेस या अन्य के खाते में इसलिए कि उनके वोटर तो घर से निकलते ही हैं, वोट भी देते हैं। खैर, इस बार चुनाव शुरू होने से पहले सब कुछ एकतरफा माना जा रहा था लेकिन जैसे ही वोटिंग-परसेंटेज कुछ हद तक गिरा, चुनावी चर्चाओं और सभी पार्टियों के चुनाव-प्रचार में अचानक सरगर्मी शुरू हो गई। विश्लेषकों के कान खड़े हो गए। भाजपा में थोड़ी बेचैनी महसूस की गई। कांग्रेस और अन्य दलों ने राहत महसूस की। हालांकि परिवारों के छोटे होने और साक्षरता बढ़ने के साथ वोट-परसेंटेज का यह गणित काफी कुछ बिखर गया। लोग किसी के कहने या किसी के दबाव में नहीं, बल्कि खुद की मर्जी से वोट देने लगे। पहले जो गांव के गांव एक ही पार्टी के पक्ष में वोट दिया करते थे, वे दिन लद गए। अब तो एक घर के वोट भी अलग-अलग पार्टियों को जाने लगे। पति-पत्नी के वोट भी अलग-अलग दलों को जाने लगे। यही वजह है कि कई ऐसी सीटें देखी गईं जहां कम वोट-परसेंटेज पर भी भाजपा जीत गई और ज्यादा वोट-परसेंटेज के बावजूद कांग्रेस या अन्य दलों की जीत नहीं हुई। वोट-प्रतिशत में चुनावों का बहुत कुछ मर्म छिपा है…
पहले माना जाता था कि ज्यादा वोट- परसेंटेज यानी भाजपा की जीत। भाजपा का वोटर घर से निकलता है तभी वोट- परसेंटेज बढ़ता है। कम वोट-परसेंटेज वाली सीटें अन्य के खाते में जाती थीं।