2024 के आम चुनावों पर की जाने वाली टिप्पणियों में सबसे अधिक सुना जाने वाला वाक्य यह है कि इसका नतीजा पहले ही तय हो चुका है। कि यह पीएम मोदी की गारंटी है कि एनडीए अगली लोकसभा में 400 से अधिक सीटों के साथ वापसी करेगा। भले ही अंतिम नतीजों में इससे 100 सीटें कम आएं, फिर भी वैसी स्थिति में भाजपा अगले पांच वर्षों तक सत्ता में आराम से बनी रहेगी। ऐसे में यह सुनकर अजीब लगता है कि 2019 के चुनावों की तुलना में भाजपा के इस बार दोगुने से भी अधिक पैसा खर्च करने का अनुमान है। इकोनॉमिस्ट पत्रिका लिखती है कि 2024 का लोकसभा चुनाव न केवल भारत बल्कि दुनिया के इतिहास का सबसे महंगा चुनाव है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) ने इसमें 1.35 लाख करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान लगाया है, जो 2019 की तुलना में दोगुना है। 2019 में भाजपा ने कांग्रेस से लगभग तीन गुना अधिक पैसा खर्च किया था। इस साल यह अंतर और बढ़ने की पूरी संभावना है, क्योंकि भाजपा के पास संसाधनों की कमी नहीं और कांग्रेस के खाते फ्रीज कर दिए गए हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर चुनावों में मुकाबला कड़ा होता तो भाजपा ने कितना खर्च किया होता? सीएमएस के अनुमानों के मुताबिक, पिछले आम चुनाव में कुल खर्च का लगभग आधा (45 फीसदी से 55 फीसदी) भाजपा ने खर्च किया था। उसी अनुपात को मानें तो 2024 में भी भाजपा उतना ही खर्च करेगी, जितना सभी पार्टियों ने मिलकर पांच साल पहले किया था। इन आंकड़ों में सरकार की योजनाओं व उपलब्धियों के बारे में विज्ञापनों पर किया खर्च शामिल नहीं है। ये विज्ञापन नियमित रूप से देश भर के अखबारों में प्रधानमंत्री और अन्य की तस्वीरों के साथ छपते हैं और उनकी छवि को बढ़ावा देते हैं। बेशक इन विज्ञापनों का भुगतान भी सरकारी खजाने से किया जाता है। उधर कांग्रेस का चुनावी-खर्च चुनावों में उसकी जीत के अनुपात में ही है। सीएमएस के अनुमानों से पता चलता है कि 2009 में कांग्रेस ने भाजपा की तुलना में कुछ अधिक खर्च किया था। लेकिन अगले दो आम चुनावों में कांग्रेस का चुनावी-खर्च लगभग स्थिर, और मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजित करने पर 2009 की तुलना में कम ही रहा। इस बीच, आम चुनावों पर भाजपा का अनुमानित खर्च लगभग चार गुना बढ़ गया है! खर्च का एक हिस्सा अधिक परिष्कृत, पेशेवर और टेक्नो-सेवी प्रचार-अभियान के लिए है तो एक हिस्सा सोशल मीडिया को दिए जा रहे ज्यादा महत्व पर। हालांकि यह जरूरी नहीं कि भाजपा का चुनावी-खर्च उसकी जीत का प्राथमिक कारण हो, लेकिन यह निश्चित रूप से उसके बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है। संसाधनों से लैस उम्मीदवार अधिक प्रतिस्पर्धी होता है। इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि उम्मीदवार धनबल से चुनाव जीत रहे हैं। मुंबई में कई वर्षों तक साइमन चॉचार्ड द्वारा किए एथनोग्राफिक फील्ड वर्क से पता चलता है कि हालांकि राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को भेंट-उपहार और यहां तक कि नकद राशि देना भी भारत में नई बात नहीं है, लेकिन यह खर्च बढ़ते चुनावी-व्यय का प्राथमिक कारण नहीं है। उम्मीदवार अधिकांश पैसा पार्टी-कार्यकर्ताओं को वेतन देने, मतदाताओं को रैलियों में लाने और हाल के वर्षों में सोशल मीडिया पर खर्च कर रहे हैं। चुनावी फंडिंग पर रिसर्च करने से हमें चुनाव-परिणामों में निजी संपत्ति की भूमिका के बारे में भी दिलचस्प बातें पता चलती हैं। नीलांजन सरकार ने 2004-2014 के बीच 20,000 से अधिक संसदीय उम्मीदवारों की संपत्ति के आंकड़ों का अध्ययन करने पर पाया कि अधिक लिक्विड-वेल्थ (यानी देनदारियों को हटा देने पर शेष बची संपत्ति) वाले उम्मीदवारों के जीतने की संभावना अधिक थी। ऐसा आंशिक रूप से इसलिए है क्योंकि राजनीतिक दल ऐसे उम्मीदवारों को ही टिकट देते हैं, जो साधन-संपन्न हों और अच्छे से चुनाव-प्रचार पर खर्च कर सकें। अब हम अपने मूल प्रश्न पर लौटें कि भाजपा चुनावों पर इतना खर्च क्यों कर रही है, जबकि उसे भारी अंतर से जीत का पूरा भरोसा है? इसका एक सरल उत्तर तो यही है कि पार्टी के पास पैसों की कमी नहीं और उसे जरूरत से ज्यादा खर्च करने से गुरेज नहीं। या फिर यह भी संभव है कि सत्तारूढ़ दल उतना आश्वस्त नहीं है जितना कि वह खुद को दिखाता है, और इसलिए चुनावों में भरपूर खर्च कर रहा है। सही उत्तर के लिए, चुनाव नतीजों की प्रतीक्षा करें। चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की संपत्ति के आंकड़ों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि राजनीतिक दल ऐसे उम्मीदवारों को ही टिकट देते हैं, जो साधन-संपन्न हों और अच्छे से चुनाव-प्रचार पर पैसा खर्च कर सकें।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)