90 के दशक की बात है। जब मुझे आईसीएसई बोर्ड में 90% अंक मिले तो कुछ आंटियां यह देखने के लिए मेरे स्कूल पहुंच गईं कि कहीं मैं झूठ तो नहीं बोल रही। आंटियों ने सोचा कि मैं होशियार दिखने के लिए बहुत सजी-धजी रहती हूं। और इसलिए जब मैंने प्राची निगम को उसके बेहतरीन परीक्षा परिणाम के बावजूद, ‘अच्छी तरह तैयार नहीं होने’ के कारण ट्रोल होते देखा तो मुझे एक चीज का अहसास हुआ कि महिलाओं को कहीं राहत नहीं है – वह हमेशा मोटी होती हैं, बहुत दुबली-पतली, बहुत खूबसूरत, बेहद बदसूरत। महिलाओं की शक्ल- सूरत को लेकर यह चिंता परेशान करने वाली है। हमें अपनी योग्यता चेहरे-मोहरे के आधार पर साबित नहीं करनी, ठीक वैसे ही इसके आधार पर हमें खारिज भी नहीं किया जाना चाहिए। यूपी बोर्ड के दसवीं परीक्षा में टॉप करने वाली प्राची को ये पता था। वह यह भी जानती थी कि उसके अंक ही उसे जीवन में आगे लेकर जाएंगे, ना कि उसका मेकअप। इसलिए उसने ट्रोलर्स को करारा जवाब दिया। अपनी उदारता से उसने उन सभी को चुप करा दिया और देश की प्रिय बन गई। क्यों? क्योंकि वास्तविकता हमेशा बकवास बातों से बड़ी होती है। सच तो यह है कि आज के नौजवानों को जिंदगी से जुड़े निर्देश नहीं दिए जाते, ऐसे में वे सौंदर्य से जुड़े निर्देशों को कैसे मानेंगे? लेकिन हम जिस दुनिया में बड़े हुए, वहां महिलाओं के शरीर को लेकर भद्दी सनक-सी रही। महिलाओं की कद्र सिर्फ उसके रंग-रूप से जुड़ी रही। महिलाओं को देखने का यह नजरिया उन्हें नीचा दिखाने और उनका कद कम करने का एक और तरीका था। समाज को लगा कि वह महिलाओं के दिमाग को वश में नहीं कर सकता तो उनके शरीर को तो हद में रख सकता है। और इसमें हम सबने अपनी-अपनी भूमिका निभाई है। अगर आप बुद्धिमान हैं तो गैर-फैशनेबल दिखें। और अगर मूर्ख हैं, तो ग्लैमरस दिखें। यह दोहरापन अब पुरातन हो चला है। नौजवान इस तरह की बातों को खारिज कर देते हैं। नौजवानों को अहसास हो गया है कि हमें नियम-कायदे बदलने की जरूरत है ना कि रंग-रूप । हमें तय करना होगा कि आईने में खुद को देखते हुए हमें क्या दिखता है। आधा सच और अंधराष्ट्रवाद आत्म-सम्मान को तहस-नहस नहीं कर सकता, न ही कोई सौंदर्य प्रतियोगिता शरीर की सुडौलता तय कर सकती है। आज हम ऐसी सौंदर्य स्पर्धाएं देख रहे हैं, जहां महिलाओं को उनकी सोच, प्रतिभा और जुनून के दम पर परखा जा रहा है, जहां 60 साल की महिलाएं क्राउन जीत रही हैं। सोचने वाली बात है कि हमारा संपूर्ण नैतिक आधार कैसे बदल गया? सच तो यह है कि बात सिर्फ महिलाओं को उनके रंग-रूप से जज करने के बारे में नहीं थी, बल्कि महिलाओं से यह कहने की काबिलियत थी कि वे अपने रंग-रूप के साथ क्या करें। पुरुष बस उन्हें ये सुनिश्चित करना चाहते थे कि वे उन्हें देख रहे हैं। क्योंकि जब पुरुषों ने महिलाओं की सुंदरता के मूल्यांकन को कंट्रोल किया तो वे अपनी ही सुंदरता का मूल्यांकन करने से मुक्त रहीं। यह अब बदल गया है। अब किसी महिला की शक्ल-सूरत पर निर्णय देने के पुरुषवादी विशेषाधिकार को महिलाओं ने त्याग दिया है। और हमने, अपने तरीके से, पुरुष व महिला सौंदर्य मापदंडों को बराबरी पर लाकर खड़ा कर दिया है। अब हम एक महिला की राय, आत्मविश्वास, बैंक बैलेंस और उसका सोशल मीडिया इंफ्लुएंस उसी तरह देखते हैं, जिस तरह एक पुरुष को परखते हैं। सुंदरता देखने वालों की आंखों में बसती है। प्राची का कदम बताता है कि सुंदरता और पूर्णता के असंभव-से लगने वाले मापदंडों पर टिके रहने के बजाय आपको जो सही लगता है, वही करना ज्यादा खूबसूरत है। आखिरकार, सबसे अच्छी सुंदरता हमेशा किसी का विश्वास होती है और हमेशा रहेगी!
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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