‘बांटो और राज करो’ के हथियार से अंग्रेजों ने दो सदी राज किया था। लेकिन आजादी के बाद भी सत्ता-लोलुप नेताओं ने देश को जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बांटे रखा। कई दशक तक कांग्रेस ने अल्पसंख्यकवाद का परचम फहराया। उसके बाद विपक्ष ने मंडल और कमंडल के सहारे कुर्सी पर कब्जा किया। अब मौजूदा लोकसभा चुनावों में मुस्लिम आरक्षण पर बहस चल रही है। लेकिन आरक्षण पर चुनावी वादे नई सरकार के गले की फांस बन सकते हैं। इसके 7 कानूनी पहलुओं पर समझ जरूरी है : 1. 95% आबादी को आरक्षण : 80 करोड़ लोगों को फ्री राशन और 95% लोगों के आरक्षण के दायरे में आने से गरीबी की स्याह हकीकत के साथ विकास का भौंडा सच दिखने लगा है। गरीबी रेखा के लिए 27 हजार रुपए सालाना से कम आमदनी तो ईडब्ल्यूएस आरक्षण और क्रीमी लेयर के लिए सालाना 8 लाख रुपए आमदनी के बेतुके मापदंड हैं। सभी तरह के आरक्षण (95%) में क्रीमी लेयर के फॉर्मूले को समानता से लागू करने के लिए देशव्यापी नीति बनानी होगी।
2. 50% की लिमिट : एससी/एसटी के लिए 22.5% आरक्षण के बाद मंडल कमीशन से ओबीसी के लिए 27% आरक्षण लागू हुआ। साल 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संविधान पीठ ने आरक्षण की अधिकतम 50% सीमा तय की थी। ईडब्ल्यूएस के 10% आरक्षण से उस सीमा का उल्लंघन होता है, लेकिन सरकार उसे मानने के लिए तैयार नहीं है। 50% से ज्यादा आरक्षण एक सच्चाई है, जिस पर चल रहे कानूनी विवादों को खत्म करने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा।
3. जातिगत जनगणना : विधायिका में महिलाओं के आरक्षण के लिए बनाए गए कानून को लागू करने की तारीख निर्धारित नहीं है। उसके लिए सीटों का परिसीमन और जनगणना जरूरी है। दो सदी पहले ज्योतिबा फुले ने जाति के आधार पर आरक्षण की संकल्पना की थी। लेकिन संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया। नेताओं ने शार्टकट से जाति और पिछड़ेपन को जोड़ दिया। जातिगत आरक्षण के बेढब फॉर्मूले पर जजों की मोहर भी लग चुकी है। इसलिए नई सरकार को जनगणना के साथ जातिगत जनगणना भी करानी होगी।
4. राज्यों में माटी-पुत्र : संविदा पर भर्ती से सरकारी नौकरियां सिमट रही हैं। निजी क्षेत्र में भी दिहाड़ी गिग-वर्कर्स का जोर बढ़ रहा है। ऐसे में माटी-पुत्रों के नाम पर युवाओं को लुभाने के लिए राज्य सरकारें निजी क्षेत्र में आरक्षण का जाल फेंक रही हैं। ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ और संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ बनाए गए कानून अदालतों में अटक जाते हैं। लेकिन आरक्षण की घोषणा से नेताओं का उल्लू सीधा तो हो ही जाता है।
5. न्यायपालिका में आरक्षण : सरकार के 100 दिन के एजेंडे में न्यायिक सुधार सर्वोपरि है। जजों की नियुक्ति में बदलाव के लिए एनजेएसी जैसे कानून पर कयास लग रहे हैं। अधिकांश राज्यों की न्यायिक सेवा में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान है। पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन में महिला आरक्षण के लिए सुप्रीम फैसले के बाद जजों की नियुक्ति में भी महिला आरक्षण का सुर बुलंद हो रहा है। दूसरी तरफ हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों में भी एससी/एसटी और ओबीसी आरक्षण की मांग हो रही है। इन मांगों को पूरा करने के लिए भी संविधान संशोधन करना होगा। 6. मुस्लिम आरक्षण : मुस्लिम आरक्षण के तीन पहलू हैं। पहला, हिंदू से मुस्लिम बनने वालों को एससी/एसटी आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है। दूसरा, दक्षिण के कुछ राज्यों में धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को आरक्षण को अदालतों ने गलत माना है। तीसरा, मुसलमानों में जाति प्रथा नहीं होती, उसके बावजूद मंडल कमीशन के तहत 3743 ओबीसी जातियों में मुस्लिम भी शामिल थे। दक्षिण भारत के साथ यूपी, बिहार और राजस्थान में भी मुसलमानों को ओबीसी आरक्षण का लाभ मिल रहा है। जबकि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण को नकारा गया है। 7. मुकदमेबाजी : बयानवीर नेता सरकार बनाने के बाद कानून को भूल जाते हैं, जिसकी वजह से मुकदमेबाजी बढ़ती है। लाभार्थियों का पूरा विवरण नहीं होने से प्रमोशन में विवाद बढ़ रहे हैं। मनमाफिक कानून और राज्यों की लिस्ट में जातियों को शामिल करने या निकालने पर राजनीतिक उठापटक हो रही है। अंतहीन मुकदमेबाजी रोकने के लिए आरक्षण से जुड़े इन पहलुओं पर संसद से विस्तृत कानून बनाना चाहिए। मंडल कमीशन के तहत 3743 ओबीसी जातियों में मुस्लिम भी शामिल थे। दक्षिण के साथ यूपी, बिहार, राजस्थान में मुस्लिमों को ओबीसी आरक्षण का लाभ मिल रहा है। जबकि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण को नकारा गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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