हिजबुल्ला पर हुई टारगेटेड-स्ट्राइक मौजूदा दौर का संभवतः सबसे महत्वपूर्ण खुफिया अभियान है। शुरू में लगा कि साइबर-युद्ध की सरहदों को लांघकर गैजेट्स की हैकिंग के जरिए यह हमला किया गया है, क्योंकि फोन, पॉवर बैंक, पेजर आदि को विस्फोटक-सामग्री के रूप में डिजाइन नहीं किया जाता है। लेकिन बाद में स्पष्ट हुआ मामला कुछ और था। 1972 में इजराइल ने अपने पहले फोन-हत्याकांड को अंजाम दिया था। महमूद हमशारी नामक एक शीर्ष पीएलओ कमांडर पेरिस में रहता था। मोसाद एजेंट गुप्त रूप से उसके अपार्टमेंट में घुसने में कामयाब रहे और उसके लैंडलाइन फोन के निचले माइक्रोफोन में विस्फोटक लगा दिया। कुछ घंटों बाद, जब हमशारी आया तो उसे एक कॉल किया गया और एक रिमोट-ट्रिगर से विस्फोट को अंजाम दे दिया गया। तब से मोसाद कई बार इस शैली का इस्तेमाल कर चुका है, पर लगता है इजराइल के दुश्मन गलतियों से सबक नहीं लेते। समस्या यह भी है कि आधुनिक दुनिया में संचार-उपकरणों के बिना आप कैसे रह सकते हैं? इजराइल जैसी हाई-टेक शक्ति का सामना करने के लिए आपको उतना ही तेजतर्रार और तकनीकी रूप से परिष्कृत होना चाहिए। दिक्कत यह है कि आप जितनी परिष्कृत तकनीक का उपयोग करेंगे, इजराइल द्वारा उसे हैक करने की संभावना उतनी अधिक होगी। नई तकनीक की काट है पुरानी तकनीक। मिसाल के तौर पर, आधुनिक अमेरिकी स्टेल्थ फाइटर या बॉम्बर को आधुनिक रडार नहीं लोकेट कर सकता, हालांकि वे 1950 के दशक के पुराने रडार पर बहुत अच्छी तरह से नजर आते हैं- क्योंकि वे परिष्कृत एल्गोरिदम के लिए बहुत पुराने हैं और उन्हें गच्चा नहीं दिया जा सकता। हिजबुल्ला वाले चाहे कोई भी एन्क्रिप्टेड आधुनिक फोन खरीदते, इजराइल उन्हें पकड़ लेता, इसलिए उन्होंने पेजर नामक 1949 की तकनीक से काम चलाने का फैसला किया। ऐसा इसलिए था क्योंकि पेजर कई स्रोतों से सिग्नल प्राप्त कर सकते हैं- कुछ मामलों में 50-60 किमी दूर से भी। इसके अलावा हिजबुल्ला की रणनीति यह थी कि एक बार पेज किए जाने के बाद वे बस अपने आस-पास के किसी नागरिक के मोबाइल का उपयोग करने का अनुरोध करेंगे और इजराइल को सभी सेलफोन कम्युनिकेशन की निगरानी करनी होगी। यह एक बेहतरीन आइडिया था। लेकिन हिजबुल्ला का दुर्भाग्य था कि इजराइल का अनेक इलेक्ट्रॉनिक निर्माता के साथ किसी न किसी तरह का संबंध है, क्योंकि वह आधुनिक दुनिया की इलेक्ट्रॉनिक महाशक्तियों में से एक है। इस वाले मामले में, माना जा रहा है कि इजराइली खुफिया तंत्र ने ताइवान की उस कंपनी के यूरोपीय निर्माता को चिह्नित करने में कामयाबी हासिल की, जिसने हिजबुल्ला के लिए पेजर बनाए थे। ऑर्डर देने के बाद, इजराइली एजेंटों ने हर डिवाइस की बैटरी में शक्तिशाली विस्फोटक लगा दिए। इस बात के कोई विवरण नहीं हैं कि यह कहां पर किया गया था- बैटरी निर्माताओं के प्लांट में? पेजर निर्माण प्लांट में? या ऑर्डर की शिपिंग के दौरान? लेकिन इस ऑपरेशन में आठ महीने से सवा साल के बीच का समय लगा है। इजराइल पहले यह सुनिश्चित करना चाहता था कि ऑर्डर किए गए सभी उपकरण सैन्य कमांडरों को वितरित किए गए हों। दूसरे, वो चाहता था कि हमला एक साथ हो। एक बीप के साथ सभी 5000 उपकरणों में एक साथ विस्फोट कर दिया गया। बीप होने पर सामान्य मानवीय प्रतिक्रिया यह होती है कि तुरंत जेब से पेजर निकाल लिया जाए। जिन्हें जल्दी नहीं होती, वे पेजर को जेब में ही रहने देते हैं। इन हमलों में विस्फोट से पेजर-धारकों की आंखों, हाथों और जांघों पर गम्भीर चोट पहुंची है। हिजबुल्ला के लगभग 500 शीर्ष लोगों ने आंखें खो दी हैं। ईरानी राजदूत भी चोटिल हुए हैं। 1866 में डायनामाइट के आविष्कार के बाद से कोई भी टारगेटेड-ऑपरेशन इतने सटीक तरीके से हजारों लोगों को निशाना बनाने में सफल नहीं रहा है। ड्रोन से किए प्रहार भी अपने लक्ष्य को मार देते हैं, लेकिन उसमें निर्दोष लोगों को भी बहुत नुकसान होता है। लेकिन इस मामले में हरेक पेजर-धारक एक हिजबुल्ला-कमांडर था। एक सामान्य व्यक्ति भला क्यों 1949 की तकनीक वाले पेजर का इस्तेमाल करेगा, खासकर जब एंड्रॉइड फोन बहुत कम कीमत पर खरीदे जा सकते हैं? विस्फोटक के बेहद छोटे आकार के कारण को-लैटरल डैमेज लगभग शून्य है। हिजबुल्ला एक छोटा संगठन है। कमांड-स्तर पर उसके पास सिर्फ पांच से सात हजार लोग थे। इसका मतलब यह है कि पेजर-हमले ने पूरी हाईकमान को तहस-नहस कर दिया है, जिसे फिर से बनाने में कई साल लग जाएंगे! 1866 में डायनामाइट के आविष्कार के बाद से कोई भी टारगेटेड-ऑपरेशन इतने सटीक तरीके से हजारों लोगों को निशाना बनाने में सफल नहीं रहा है। इस वाले मामले में हरेक पेजर-धारक एक हिजबुल्ला-कमांडर था!
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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