महाराष्ट्र का यह विधानसभा चुनाव अब तक का सबसे गहमागहमी वाला और भ्रमित करने वाला चुनाव भी है। और सभी की नजरें शरद पवार पर हैं। मराठा बाहुबली पवार का राज्य की राजनीति में चार दशकों से दबदबा रहा है, फिर चाहे वे मुख्यमंत्री रहे हों या सत्ता के पीछे की शक्ति। दो बार वे विपक्ष में रहे। आज 83 की उम्र में उन्हें अहसास है कि शायद यह उनका आखिरी दांव है। देश के इस सबसे अमीर राज्य- जो सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों के मामले में भी दूसरे नंबर पर है- में पवार के पास राजनीति की दिशा तय करने का यह आखिरी मौका है। वे अपनी विरासत और एनसीपी का भविष्य मजबूत करना चाहेंगे। वे यह भी जानते हैं कि महाराष्ट्र के नतीजों से आने वाले महीनों में राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय होगी। अगर भाजपा का महायुति गठबंधन हारता है, तो इससे हरियाणा में उसकी हालिया जीत को तुक्का मान लिया जाएगा। साथ ही, उसके भविष्य पर वे सवाल फिर उठने लगेंगे, जो लोकसभा चुनाव के बाद उठे थे। दूसरी ओर, शरद पवार के प्रयासों के साथ, कांग्रेस और शिवसेना के उद्धव ठाकरे वाले गुट को मिलाकर बने महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की जीत से न केवल इंडिया ब्लॉक मजबूत होगा, बल्कि भारतीय राजनीति के महारथी और विपक्ष के रणनीतिकार के तौर पर पवार की छवि और मजबूत हो जाएगी। जाहिर है, उस शख्स के लिए बहुत कुछ दांव पर है, जिसका नाम महाराष्ट्र का पर्याय बन गया है। उम्र और स्वास्थ्य ने उन्हें शारीरिक रूप से भले धीमा कर दिया हो, दिमाग पहले जैसा ही तेज है। एमवीए उनकी ही रचना थी। जब गठबंधन में रहते हुए 2019 का विधानसभा चुनाव जीतने के बावजूद, संयुक्त शिवसेना और भाजपा सरकार बनाने के लिए सहमति पर पहुंचने में विफल रहे, तो पवार ने एक जादूगर की तरह एमवीए को अपनी टोपी से बाहर निकाला था। उन्हें इसकी कीमत तीन साल बाद चुकानी पड़ी, जब भाजपा ने पहले एकनाथ शिंदे को अलग करके शिवसेना और फिर उनके भतीजे अजित पवार को अलग करके पवार की अपनी पार्टी एनसीपी को विभाजित कर दिया। यह शरद पवार के लिए बहुत बड़ा झटका था और तब से वे प्रतिशोध लेना चाह रहे थे। उन्हें लोकसभा चुनावों में मौका मिला, जब उन्होंने महायुति को हराने और महाराष्ट्र की 48 में से 30 सीटें जीतने में एमवीए की मदद की। महाराष्ट्र और यूपी में हार ने ही भाजपा को बहुमत के आंकड़े से नीचे ला दिया था और उसे गठबंधन सरकार बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। अब पवार दूसरे राउंड की तैयारी कर रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि यह भाजपा को महाराष्ट्र से बाहर करने का अंतिम दौर होगा। साफ है कि एमवीए में फैसले कौन ले रहा है। सीट बंटवारे के फॉर्मूले को लेकर उद्धव की शिवसेना और कांग्रेस के बीच अंत तक खींचतान चली। समझौता कराने के लिए शरद पवार को बुलाया गया। पवार ने न केवल समझौता कराया, बल्कि अपने लिए सीटों का बड़ा हिस्सा हासिल कर फायदा भी पाया। शरद पवार ने जो फॉर्मूला निकाला, वह गौर करने लायक है। पवार का मुख्य प्रभाव क्षेत्र पश्चिमी महाराष्ट्र का चीनी उत्पादक क्षेत्र है। इस क्षेत्र में विधानसभा की 70 सीटें हैं। लोकसभा चुनावों में, पवार ने केवल 10 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें उन 70 में से लगभग 65 विधानसभा सीटें आती हैं। हैरानी की बात यह थी कि उनके जैसा कद्दावर नेता इतनी कम सीटों पर समझौता कर गया। लेकिन एक चतुर राजनेता होने के नाते शरद पवार ने केवल उन निर्वाचन क्षेत्रों में लड़ने का विकल्प चुना, जहां उन्हें लगा कि भतीजे अजित पवार द्वारा उनकी पार्टी को बांटने के बावजूद वे जीत सकते हैं। हुआ भी यही। महाराष्ट्र में बाकी पार्टियों की तुलना में पवार का स्ट्राइक रेट सबसे ज्यादा था। उन्होंने 10 में से 8 सीटें जीतीं। लोकसभा चुनाव के बाद से, उन्होंने अपनी पार्टी में सबकुछ ठीक करने के लिए कड़ी मेहनत की है। वे अजित के गुट के सात महत्वपूर्ण दलबदलुओं को वापस ले आए और बेटी सुप्रिया सुले, भतीजे रोहित और पोते युगेंद्र के बीच उत्तराधिकार को लेकर क्रम तय किया। उन्होंने आत्मविश्वास दिखाते हुए परिवार के गढ़ बारामती में अजित के खिलाफ युगेंद्र को मैदान में उतारा है। यह लंबे समय तक उनकी अपनी सीट रही है। अजित पवार की पार्टी विधानसभा चुनाव में 87 सीटों पर लड़ने के लिए तैयार है। इससे अजित को न केवल अपनी एनसीपी की पकड़ मजबूत बनाने का मौका मिलेगा, बल्कि विदर्भ व मराठवाड़ा समेत अन्य इलाकों में भी पंख फैलाने का मौका मिलेगा। लेकिन शरद पवार एमवीए की ओर से हर चाल सोच-समझकर चल रहे हैं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)