11 वीं में पढ़ने वाला अरुल तकलीफ में है, क्योंकि अपने दादा और शिक्षक पिता की तरह वो भी तमिलनाडु के तंजावुर में अपने उसी गांव में पूरी जिंदगी बिताना चाहता था, पर अब वो गांव-आंगन छूट रहा था। संयुक्त परिवार के विवाद के कारण साल 1996 में अरुल का पूरा परिवार उस बड़े-से घर से बेदखल होकर चेन्नई आ जाता है। उसने तभी ठान लिया था कि कभी गृहनगर नहीं लौटूंगा, जितना हो सकेगा, दिमाग से भी घर-कस्बे की यादें मिटा दूंगा। अब कहानी साल 2018 में आ जाती है। अरुल अब अरुणमोझी वर्मन (वयस्क अरुल का किरदार रोज़ा फिल्म के हीरो अरविंद स्वामी ने निभाया) है और उसे मजबूरन गृहनगर जाना पड़ रहा है क्योंकि उसकी चचेरी बहन, जिसके साथ वो बड़ा हुआ, वो चाहती है कि उसकी शादी में अरुल हर हाल में आए। समारोह में अरुल की एक रिश्तेदार (ये भूमिका कार्ति ने निभाई है) से मुलाकात होती है और उसे उसका नाम पता नहीं होता। अब वो गुमनाम किरदार अरुल के साथ होकर उसे अलग-अलग लोगों से मिलाता है और जब ये पात्र आपस में बातें करते हैं, तो कड़ियां जुड़ती जान पड़ती हैं। एक महिला दूर से अरुल को पहचानकर पास आती है, बात शुरू करती है, ‘मेरे माता-पिता किसी ऐसे से मेरी शादी कराना चाहते थे, जो इसी गांव में रहे, ताकि मैं पूरी जिंदगी उनकी आंखों के सामने रहूं। मैं अब भी उनकी आंखों के सामने हूं, पर शराबी पति के साथ किसी तरह कट रही जिंदगी किसी को दिखती नहीं।’ और जब एक रिश्तेदार अरुल से कहता है कि अगर तुमने उससे शादी की होती, तो आज उसकी जिंदगी अलग होती और जैसे ही महिला उठकर जाती है, अरुल की पीठ पर हाथ स्पर्श करते हुए निकलती है। वो पल बता देते हैं कि कुछ घाव अभी भी भरे नहीं जा सके हैं। अरुल के लिए अभी तक वह गुमनाम शख्स उसका हमसाया बन जाता है और दोनों के बीच की बातचीत इस 158 मिनट की फिल्म को एक अलग ही तल पर ले जाती है। गुमनाम और अरुल की नजर में वाचाल शख्स धीरे-धीरे परतें खोलता जाता है कि कैसे 22 साल पहले अरुल जो साइकिल छोड़कर गया था, उसी के कारण उसकी जिंदगी में आज समृद्धि है। वो अरुल को अपने घर लेकर जाता है और वो साइकिल दिखाता है, जिसकी वह भगवान की तरह पूजा करता है। फिर एक सांप का जिक्र निकलता है, जो उसी गुमनाम शख्स के घर में चार बच्चों को जन्म दे चुका है और उसे ये घर बच्चों के लिए सुरक्षित लगता है, फिर एक बैल की बात होती है कि कैसे उसने जल्लीकट्टू में कई पुरस्कार जीते हैं और वे उस गुमनाम आदमी की जिंदगी में ऐसे घुले-मिले हैं, मानो वह उन्हीं में से एक है और कैसे पूरा गांव उसके दयालु व्यवहार और हमेशा सबको खुश रखने की काबिलियत के कारण मदद के लिए आगे आता है। ना सिर्फ इन दो पात्रों के बीच रिश्ते को एक खूबसूरत फूल की तरह खिलते देखना, बल्कि स्क्रीन पर हर किसी को देखकर वाकई एक सुखद अनुभव होता है। पर कहानी की शुरुआत में अरुल उस गुमनाम शख्स को ये सोचकर अपना गलत नंबर देता है कि उससे दोबारा मुलाकात नहीं होगी, पर ये किरदार कागज पर लिखकर अपना सही नंबर देता है। उसके साथ कई घंटे बिताने के बाद भी अरुल को अब तक उसका नाम याद नहीं आता और न ही किसी से पूछ पाता है। इस ग्लानि में वो अचानक अलसुबह निकल जाता है और वापस चेन्नई पहुंच जाता है। अरुल पत्नी को बताता है कि उस जिंदादिल इंसान के सामने वह खुद को कितना छोटा महसूस कर रहा है और उसका नाम न जानने के अपराधबोध के साथ जी रहा है। तब उसकी बेटी नंबर मिलने के बाद उस गुमनाम शख्स को फोन लगाती है और अरुल को उसका नाम पता चलने के साथ फिल्म खत्म हो जाती है और वो उसे ‘मेईअयागन’ (Meiyazhagan) कहता है। इसका अर्थ है, वाकई खूबसूरत इंसान। और ये तमिल फिल्म ‘मेईअयागन’ अरुल के चेहरे पर राहत की सांस के साथ खत्म होती है, क्योंकि अब उसका भ्रम दूर हो गया है। रिश्तों को लेकर मन में कड़वाहट रखने वालों के लिए लाइफ कोच द्वारा सुझाई जाने वाली ये सबसे लोकप्रिय फिल्मों में से है। फंडा यह है कि कोई घाव जब बाहर से थोड़ा भर जाए, तो उसके दर्द का अंत करने का रास्ता खोज लेना चाहिए, नहीं तो फिर घाव में अंदर से पस पड़ जाएगी और फिर पूरी जिंदगी परेशान करेगी।

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