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कवियों के मंचों पर साथ चलती है इज्जत-बेइज्जती:आत्मज्ञान जिसको हो जाए, उसे बाहरी ज्ञान की आवश्यकता नहीं

‘वे लोग अपनी वेबसाइट कभी नहीं बनवाते, जो महान होते हैं। इसलिए मैंने अब तक अपनी वेबसाइट नहीं बनवाई।’ संसार में वेबसाइट उन लोगों की बनती है, जो खुद को महत्त्वपूर्ण समझते हैं। वे लोग अपनी वेबसाइट कभी नहीं बनवाते, जो महान होते हैं। इसलिए मैंने अब तक अपनी वेबसाइट नहीं बनवाई थी। पिछले कुछ महीनों में ऐसा हुआ कि लोगों ने मुझे महान मानना कम कर दिया। मसलन, पान वाले ने उधारी बंद कर दी। जिन दोस्तों से उधार लिया था, उन्होंने तगादे शुरू कर दिए। चौकीदार ने नमस्ते करनी बंद कर दी। बाहर की छोड़ो, घर पर यह हाल हो गया कि मैं और मेरा बेटा साथ खाना खा रहे थे तो पत्नी ने रोटी पहले बेटे को दी, बाद में मुझे परोसी। इससे बुरा क्या होगा कि कुछ साहित्यकारों ने मुझे साहित्य में स्थान देने की भी बात कही। क्योंकि वे जानते हैं कि एक बार यह अफवाह फैली कि सुरेन्द्र शर्मा साहित्य में आ चुका है, तो पूरा देश समझ जाएगा कि अब यह कवि-सम्मेलनों के लायक नहीं रहा। व्यक्तिगत, घरेलू और साहित्यिक स्तर पर जिस व्यक्ति का इतना चरित्र हनन हो चुका हो, उसके लिए वेबसाइट में परिचय कौन लिखेगा? उसे अपनी आरती उतारने के लिए ख़ुद पुजारी होना पड़ेगा। आत्मज्ञान जिसको हो जाए, उसे बाहरी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। बेशक पूरा देश मुझे एक आम आदमी समझता हो, लेकिन मुझे तो मालूम है ना कि मुझमें क्या खास है! मैं वो देव तो हूं नहीं कि दूसरे के याद दिलाने पर मुझे अपना बल याद आए। मुझे तो पूरे विश्व को अपना विराट स्वरूप खुद ही दिखाना है। कई बार हाथों में हाथ बांधकर शीशे के सामने खड़ा होता था, तो विवेकानंद से कम नहीं लगता था। पर मेरे छोटे कद और गंजी खोपड़ी ने मुझे विवेकानंद का प्रतिद्वंदी बनने से रोक दिया। गंजी खोपड़ी की वजह से मैं साधु भी बन सकता था, पर काफी सोच-समझकर मैंने साधु न बनने का निर्णय लिया। मैं राजनीति में भी जा सकता था, पर वहां इसलिए नहीं गया क्योंकि वहां जिन लोगों को आप देखना भी पसंद नहीं करते, उनके पांव छूने पड़ते हैं। जितनी राजनीति, राजनीति में नहीं है, उससे ज्यादा राजनीति तो साहित्य में है। तो बेहतर है कि मैं साहित्य के क्षेत्र में जाऊं। सो, मैं कवि-सम्मेलनों के मंच पर आया। क्योंकि यहां इज्जत-बेइज्जती साथ चलते हैं। जो मंच के सामने बैठते हैं, वे आपकी इज्जत करते हैं और जो साथ में बैठते हैं, वे मौके-बेमौके बेइज्जत करने की फिराक में रहते हैं। मेरा बचपन खेलते-कूदते और पिटते हुए गुजरा। आज के बच्चों को याद तक नहीं आता कि उन्हें पिता ने कब डांटा था। अब से कुछ साल पहले बच्चे यदा-कदा पिटते थे और उससे कुछ साल पहले बच्चे सर्वदा पिटते थे। मेरा बचपन उसी काल का है। कई बार तो मेरे पिता मेरी पिटाई का कारण मुझसे ही पूछते थे और न बता पाने की स्थिति में फिर पीटते थे। उन्होंने किसी महान पीटू साहित्यकार पिता की यह उक्ति पढ़ ली थी कि ‘आप अपने बच्चे को रोज पीटो, वजह आपको मालूम हो या ना हो, बच्चे को पता होती है।

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