अमेरिकी इतिहास के सबसे उथल-पुथल भरे चुनावों में से एक के सम्पन्न होने के बाद अब कई लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या डोनाल्ड ट्रम्प अपने आर्थिक एजेंडे को पूरा करेंगे? और अगर वे वादों पर अमल करते हैं तो इसका दुनिया पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ट्रम्प ने सभी आयातों पर 10% और चीनी वस्तुओं पर 60% तक टैरिफ लगाने और मैन्युफेक्चरिंग क्षेत्र में नौकरियां पैदा करने का वादा बार-बार दोहराया। उन्होंने विदेशों में उत्पादन करने वाली अमेरिकी कंपनियों को दंडित करने, बिना किसी दस्तावेज वाले लाखों इमिग्रेंट्स को निर्वासित करने और प्रवासियों के अमेरिका में प्रवेश और अमेरिकी श्रमिकों के साथ प्रतिस्पर्धा करने की राह में अड़चनें पैदा करने की भी कसमें खाईं। पहली नजर में तो ट्रम्प का ‘मैन्युफैक्चरिंग पुनर्जागरण’ का दृष्टिकोण आकर्षक लग सकता है। चुनाव के नतीजे भी बताते हैं कि इसने मतदाताओं को प्रभावित किया है। वित्तीय बाजारों ने भी सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की। डॉलर में उछाल आया और एसएंडपी500 ने एक साल में अपनी सबसे बड़ी साप्ताहिक बढ़त दर्ज की। लेकिन शेयर बाजार में तेजी महत्वपूर्ण कर कटौतियों और विनियमन की उम्मीदों से प्रेरित है। धनकुबेरों और बड़े कॉर्पोरेट्स पर कर बढ़ाने की योजना- जो कमला हैरिस के अभियान का मुख्य हिस्सा थी- फिलहाल स्थगित कर दी जाएगी। लेकिन जब बात वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रवाह को प्रतिबंधित करने की ट्रम्प की योजनाओं की आती है, तो विशेषज्ञ इतने आशावादी नहीं रह पाते। हाल ही में पीटरसन इंस्टीट्यूट में प्रकाशित एक पेपर में ट्रम्प के ट्रेड बैरियर्स के संभावित परिणामों की जांच की गई है। इसमें चेतावनी दी गई है कि उनके आयात-शुल्क से कीमतें बढ़ेंगी, जिसका बोझ निम्न और मध्यम आय वाले परिवारों पर पड़ेगा। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि ट्रम्प के शुल्कों के परिणामस्वरूप निरंतर मुद्रास्फीति नहीं होगी, केवल एक बार कीमतें उछलेंगी। लेकिन यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि स्थायी आर्थिक लाभ देने के बजाय, ट्रम्प की नीतियां गंभीर नुकसान पहुंचाएंगी। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अमेरिका के चारों ओर निर्मित टैरिफ की दीवार घरेलू उत्पादकों के लिए लागत बढ़ाएगी। यह इतना स्वाभाविक है कि ट्रम्प के अलावा शायद ही किसी और को चौंकाएगा। ट्रम्प की टैरिफ योजना में मूलभूत दोष यह है कि घरेलू उत्पादक इम्पोर्टेड इनपुट्स पर बहुत अधिक निर्भर हैं। स्टील का उदाहरण लें। अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा स्टील आयातक है और वह ब्राजील, कनाडा, मैक्सिको और चीन सहित 80 देशों से अपनी आपूर्ति करता है। स्टील टैरिफ में तेज वृद्धि अमेरिका में निर्मित उत्पादों की लागत को बढ़ाएगी, आर्थिक प्रतिस्पर्धा को कम करेगी और अंततः मैन्युफैक्चरिंग जॉब्स को वापस लाने के ट्रम्प के घोषित लक्ष्य को कमजोर ही करेगी। विदेशी श्रमिकों के उपयोग को सीमित करने की ट्रम्प की योजना भी समस्या को बढ़ाएगी। भारत 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से अमेरिका को लेबर प्रदान करने वाले सबसे बड़े देशों में से एक रहा है। पिछले तीन दशकों में आउटसोर्सिंग भारत और अमेरिका दोनों के लिए वरदान साबित हुई है, क्योंकि डिजिटल क्रांति ने अमेरिकी कंपनियों को भारत की कम श्रम लागत का लाभ उठाने में सक्षम बनाया है। आउटसोर्सिंग को प्रतिबंधित करने से न केवल भारत की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचेगा, बल्कि अमेरिका में उत्पादन लागत भी बढ़ेगी। ट्रम्प के प्रतिबंधों के दूरगामी भू-राजनीतिक परिणाम भी हो सकते हैं, जो भारत से घनिष्ठ सुरक्षा संबंध बनाने के लिए तीन दशकों के अमेरिकी कूटनीतिक प्रयासों को कमजोर कर सकते हैं। इसके अलावा, सस्ते विदेशी श्रम तक पहुंच को सीमित करने से अन्य देश- विशेषकर चीन- उत्पाद बाजार में अमेरिकी फर्मों को पछाड़ने में सक्षम होंगे। जैसे-जैसे अमेरिका खुद को अलग-थलग कर रहा है, चीन अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में अपने पैर जमाने में व्यस्त है। इन क्षेत्रों में उसकी बढ़ती उपस्थिति उत्पादन और सोर्सिंग के लिए नए रास्ते खोल सकती है, जिससे चीनी उत्पादकता बढ़ेगी। अकसर इस बात को अनदेखा कर दिया जाता है कि आउटसोर्सिंग से कॉर्पोरेट मुनाफे में वृद्धि होती है। इसका समाधान कम लागत वाले विदेशी श्रम तक पहुंच को सीमित करने में नहीं है, बल्कि कर प्रणाली के माध्यम से अमीरों से प्राप्त लाभों में से कुछ को गरीबों में पुनर्वितरित करने में है, जिससे सुनिश्चित हो सके कि वैश्विक व्यापार के लाभों को अधिक समान रूप से साझा किया जाए। ज्यादातर चुनावों के बाद चिंता जताई जाती है कि शायद विजेता अपने वादों को पूरा करने में नाकाम रहेगा। इसके उलट अमेरिका और दुनिया भर में यह डर है कि कहीं ट्रम्प सच में ही अपने वादों को पूरा करने में ना जुट जाएं!
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