मैं कभी क्रिकेट का दीवाना हुआ करता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से देखना बंद कर दिया है। एक सहकर्मी ने मुझे याद दिलाया कि बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी आज से शुरू हो रही है। तो चलिए क्रिकेट की लौ को फिर जलाते हैं और एक जरूरी चीज का जश्न मनाते हुए उसके संरक्षण की बात करते हैं : रेडियो कमेंट्री। जिफ्स और रील्स के जमाने में, आपने आखिरी बार रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री कब सुनी थी? आपने कब मैच का हाल जानने के लिए कार में बैठकर आकाशवाणी लगाया था? कई दशक हो गए होंगे! इस कॉलम को पढ़ रहे मिलेनियल और जेन-ज़ी को रेडियो पर क्रिकेट मैच ‘सुनने’ के बारे में शायद पता ही न हो। उनकी गलती नहीं है। हम में से जो लोग बीटल्स और ऐबा के दौर से हैं, वे मानते हैं कि ‘वीडियो ने रेडियो को खत्म कर दिया।’ 1922, ऑस्ट्रेलिया। क्रिकेट मैच का पहला रिकॉर्डेड प्रसारण चार्ल्स बैनरमैन के सम्मान में आयोजित एक एग्जीबिशन गेम के लिए था, जिन्होंने टेस्ट क्रिकेट में पहला शतक बनाया था। क्रिकेट की बाइबिल, विजडन के मुताबिक उस प्रसारण का कोई रिकॉर्डेड सबूत उपलब्ध नहीं है। भारत में भी, रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री की गौरवशाली विरासत है। अर्देशिर फुरदोरजी सोहराबजी ‘बॉबी’ तल्यारखान को अक्सर रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री का पुरोधा माना जाता है। उन्होंने पहली बार 1934 में ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) के लिए कमेंट्री की थी। यह कमेंट्री मुंबई में हुए चतुष्कोणीय टूर्नामेंट में, पारसी और मुस्लिम समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाली टीमों के बीच हुए मैच के लिए की गई थी। बॉबी तल्यारखान किसी और कमेंटेटर के साथ माइक साझा नहीं करते थे। जैसा कि रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘अ कॉर्नर ऑफ अ फॉरेन फील्ड’ में लिखा है, ‘उनका आत्मनियंत्रण किसी महामानव जैसा था। वे बिना रुके बोलते रहते थे (लंच या टी-ब्रेक को छोड़कर)।’
रेडियो कमेंट्री में कुछ शानदार नाम थे- बैरी सर्वाधिकारी, पियर्सन सुरिता, डिकी रत्नागर, अनंत सीतलवाड़, किशोर भिमानी। इनमें से कुछ का लहजा ब्रिटिश अंग्रेजी वाला था। सीधे लॉर्ड्स के ‘द लॉन्ग रूम’ से। मौजूदा दौर में, सुशील दोशी (इंदौर से) एवं संजय बनर्जी हिन्दी में और सुनील गुप्ता एवं प्रकाश वाकणकर अंग्रेजी में बेहतरीन काम कर रहे हैं। अगर अच्छे से की जाए तो रेडियो कमेंट्री भी टीवी के 24 फ्रेम प्रति सेकंड वाले वीडियो जितनी ही रोचक हो सकती है। यह श्रोता को बांधे रखती है, उसे अपनी कल्पना का इस्तेमाल करने देती है और पिच के बीचोबीच ले जाती है। जैसा कि ऑर्सन वेल्स ने कहा है, ‘रेडियो मन का रंगमंच है।’ इसलिए बीबीसी के ‘टेस्ट मैच स्पेशल’ और एबीसी के ‘ग्रैंड स्टैंड’ के अपने चैनल और श्रोता हैं, जिसमें उनके पॉडकास्ट भी शामिल हैं। इन कार्यक्रमों की सफलता के पीछे इनकी गुणवत्ता है। शीर्ष स्तर के ऐसे कमेंटेटर जरूरी हैं, जो श्रोताओं से रिश्ता बना लेते हैं। जॉन अर्लट, जिम मैक्सवेल, एलन मैकगिलव्रे, हेनरी ब्लोफेल्ड, क्रिस्टोफर मार्टिन जेनकिंस किंवदंतियों का हिस्सा हैं। रेडियो पर भारतीय क्रिकेट कमेंट्री अब औसत दर्जे की क्यों हो गई है? चार या पांच कमेंटेटरों को छोड़ दें तो बाकी सभी बस तथ्य और आंकड़ों की नीरस सूची पढ़ते रहते हैं। कोई रंग नहीं, कोई संदर्भ नहीं, कोई इतिहास नहीं, कोई हंसी-मजाक नहीं। 2022 के पहले तीन महीनों में, आकाशवाणी के हर महीने औसतन दो करोड़ श्रोता थे। भारत में पॉडकास्ट श्रोताओं की संख्या 17 करोड़ होने का अनुमान है। स्पॉटिफाई जैसी कंपनियों की ऑडियो-बुक्स का राजस्व तेजी से बढ़ रहा है। आकाशवाणी के पास अच्छा कंटेंट बनाकर ज्यादा श्रोताओं तक पहुंचने का यह शानदार मौका है। मेरे तीन सुझाव हैं। एक, हर भाषा के लिए एक अलग चैनल बनाएं। हिन्दी और अंग्रेजी कमेंटेटरों की जोड़ी बनाकर कमेंट्री करवाना, अच्छी रेडियो कमेंट्री को खत्म करने जैसा है। दो, आकाशवाणी के लिए कमेंटेटरों की चयन प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। शीर्ष स्तर के कमेंटेटरों का समूह बनाने के लिए जज करने की निष्पक्ष और पेशेवर प्रक्रिया होना जरूरी है। और तीन, आकाशवाणी के कमेंटेटरों के पेनल में से भी उन लोगों का चयन जरूरी है जिन्हें श्रोता को बांधे रखने के लिए क्रिकेट और उसकी शैली/शब्दावली की गहरी समझ हो। सिर्फ इस सिद्धांत पर कमेंटेटरों को नियुक्त करने का कोई फायदा नहीं है कि ‘पेनल के हर व्यक्ति को मौका मिलना चाहिए।’ देश में पॉडकास्ट श्रोताओं की संख्या 17 करोड़ होने का अनुमान है। स्पॉटिफाई जैसी कंपनियों की ऑडियो-बुक्स का राजस्व बढ़ रहा है। आकाशवाणी के पास अच्छा कंटेंट बनाकर श्रोताओं तक पहुंचने का अच्छा मौका है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख के सहायक शोधकर्ता आयुष्मान डे हैं)

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