वायु प्रदूषण एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य संकट तो है ही, यह एक घातक महामारी भी पैदा कर रहा है- हृदय रोग की। वायु प्रदूषण से दिल को धीरे-धीरे नुकसान होता रहता है और फिर यह गंभीर समस्या बन सकती है। हमने हृदय रोग के मामलों में भोजन और व्यायाम से जुड़े जोखिमों से निपटने की दिशा में काफी प्रगति की है, लेकिन यह जंग तब तक नहीं जीत सकते जब तक वायु प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं होगा। यह जरूरी है क्योंकि जो लोग स्वस्थ जीवनशैली अपनाते हैं, उन्हें भी वायु प्रदूषण का खतरा बना रहता है। हृदय रोग पहले से ही भारत में मौत का प्रमुख कारण है और वायु प्रदूषण इस समस्या को बढ़ा रहा है। यानी हृदय रोग की रोकथाम के लिए व्यापक दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है। हालांकि वायु प्रदूषण पूरे शरीर को प्रभावित करता है, लेकिन हृदय पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। इससे होने वाले नुकसान नसों को सख्त और संकरा बना देते हैं। इससे खून का थक्का जमने, बीपी बढ़ने, दिल का इलेक्ट्रिक सिस्टम बाधित होने, नसों की उम्र समय से पहले बढ़ने और संचार प्रणाली में सूजन जैसे खतरे बढ़ते हैं। समय के साथ, इससे प्लाक बनने लगता है और दिल के दौरे जैसा तनाव होता है। हमारा शरीर अनियमित धड़कन, थकान, सीने में परेशानी और सांस लेने में कठिनाई के जरिए इसका संकेत देता है। जिन दिनों प्रदूषण ज्यादा होता है, ये प्रभाव इतने गंभीर हो सकते हैं कि दिल का दौरा पड़ सकता है। अनुमान है कि साल में पीएम2.5 के प्रति 10 mcg/m3 के संपर्क से दिल का दौरा पड़ने का खतरा 15-30% और मृत्यु दर 20% बढ़ जाती है। वायु प्रदूषण सालाना 90 लाख से ज्यादा लोगों की जान लेता है, जिनमें से लगभग 70% मौतें परिवेशीय वायु गुणवत्ता के कारण होने वाली हृदय संबंधी बीमारियों से होती हैं। भारत में वायु प्रदूषण स्तर, हमारे खुद के वार्षिक एंबियंट स्टैंडर्ड, पीएम2.5 के 40 mcg/m3 से ज्यादा है। अध्ययनों से पता चलता है कि हमारी लगभग एक तिहाई आबादी, इस स्टैंडर्ड से कम गुणवत्ता की हवा वाले इलाकों में रहती है। हमारे लिए ये आंकड़े एक गंभीर और अनूठी चुनौती हैं। भारत- जो दुनिया की हृदय रोग राजधानी है और जहां दिल का पहला दौरा पड़ने की औसत आयु सिर्फ 50 वर्ष है- में वायु प्रदूषण, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मोटापे और कोलेस्ट्रॉल जैसी एक साथ होने वाली बीमारियों की पहले ही गंभीर स्थिति को और बढ़ा रहा है। इस संकट से सिर्फ बुजुर्गों, गर्भवती महिलाओं और पहले से बीमार लोगों को ही खतरा नहीं है, बल्कि यह बच्चों के मानसिक विकास पर असर डालकर भारत के भविष्य के लिए भी खतरा बन सकता है। हवा को सुरक्षित बनाने के लिए बेहतर कानून, नीतियां, तकनीक और कार्यान्वयन के साथ नैदानिक तैयारी जरूरी है। जैसे-जैसे राष्ट्रीय नीतियां दीर्घकालिक वायु गुणवत्ता सुधार की दिशा में प्रगति कर रही हैं, हमारे चिकित्सीय ज्ञान और हेल्थकेयर क्षमताओं को भी आगे बढ़ना होगा। उच्च प्रदूषण वाले दिनों के लिए तो वैज्ञानिक सुझाव मौजूद हैं, लेकिन हमें स्वस्थ और कमजोर आबादी, दोनों की मदद के लिए साल भर के दिशानिर्देशों की जरूरत है। नियमित व्यायाम हृदय की मांसपेशियों और रक्त वाहिकाओं को मजबूत बनाता है, जिससे उनकी प्रदूषण के नुकसान को झेलने की क्षमता बढ़ती है। एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर आहार, प्रदूषण से होने वाले ऑक्सीडेटिव तनाव को बेअसर करने में मदद करता है, जबकि अच्छी नींद व तनाव प्रबंधन से जलन-सूजन कम होती है। खूब पानी पीने से टॉक्सिन साफ करने में मदद मिलती है और स्वस्थ वजन बनाए रखने से हृदय संबंधी तनाव कम हो जाता है। हालांकि ये आदतें हमें दूषित हवा में सांस लेने के खतरों से पूरी तरह सुरक्षित नहीं बनाएंगी। उच्च प्रदूषण वाले दिनों में सोच-समझकर बाहरी गतिविधियों की योजना बनाएं। घर से तभी निकलें जब जरूरी हो। फेस मास्क पहनने चाहिए, पर जिन्हें हृदय संबंधी रोग हैं उन्हें पहले डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए। स्वास्थ्य प्रणाली को भी अपग्रेड होना होगा। हृदय रोग की पहचान की जांचों में हवा की गुणवत्ता के आंकड़े शामिल किए जा सकते हैं। स्थानीय वायु गुणवत्ता मॉनिटर और पहने जा सकने वाले डिवाइसों से प्रदूषित हवा में रहने से जुड़ा रियल-टाइम डेटा मिल सकता है और प्रदूषण से जुड़े जरूरी मापदंडों को ट्रैक किया जा सकता है। इसे बायोकेमिकल मार्कर या इंफ्लेमेशन और दिल के समग्र स्वास्थ्य मापदंडों के साथ देखने पर, डॉक्टर किसी व्यक्ति में वायु प्रदूषण के प्रति संवेदनशीलता को समझ सकते हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)