आलोचक चाहे जो कहें, मैंने तो हमेशा यही मानने की कोशिश की है कि भारत का चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के अपने संवैधानिक दायित्व को लागू करने में भेदभावपूर्ण नहीं है। लेकिन हाल ही में मुझे तब बहुत निराशा हुई, जब मैंने पाया कि चुनाव आयोग पर लगाए जाने वाले आरोप सही प्रतीत होते हैं। मैंने पिछले सप्ताह मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार से सम्पर्क करने की कोशिश की थी, ताकि उन्हें सूचित किया जा सके कि बिहार में 13 नवम्बर को होने वाले चार उपचुनावों पर छठ पूजा के एक सप्ताह तक चलने वाले उत्सवों का गम्भीर असर पड़ेगा। जैसा कि बिहार से परिचित कोई भी व्यक्ति जानता है, यह राज्य का सबसे लम्बा चलने वाला और सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। इस साल यह 5 से 8 नवम्बर तक चला, हालांकि इसकी तैयारियां बहुत पहले शुरू हो गई थीं। ऐसे पर्वों के दौरान राजनीति एक अवांछित दखलंदाजी बन जाती है और चुनाव-प्रचार मुश्किल हो जाता है। हालांकि उनके दफ्तर में मेरे द्वारा लगाए गए फोन कॉल्स या तो अनसुने रह गए, या अगर मैंने बात करने या मिलने के लिए अनुरोध किया, तो कोई जवाब नहीं मिला। हर बार उनके कर्मचारियों ने मुझे यही बताया कि वे व्यस्त हैं, और मेरा संदेश उन तक पहुंचा दिया जाएगा। उनके निजी मोबाइल पर भी मेरे संदेश डिलीवर तो हुए, लेकिन उनका जवाब नहीं मिला। जब मैंने फोन किया, तो मुझे एक वॉइस मेल पर भेज दिया गया, जहां मैंने बताया कि मुझे उनसे तुरंत बात करने की जरूरत क्यों है। लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ। इसी दौरान जन सुराज पार्टी (जेएसपी) ने चुनाव आयोग को इस सम्बंध में एक लिखित ज्ञापन भेजा, जिसे विधिवत स्वीकार तो किया गया, लेकिन उसका कोई जवाब नहीं दिया गया और न ही सुनवाई के लिए उन्हें कोई आमंत्रण मिला। छठ पूजा से जुड़े बिहार के दर्जनों स्वतंत्र संगठनों की ओर से भी चुनाव की तिथि आगे बढ़ाने की मांग वाली याचिकाएं चुनाव आयोग को दी गई थीं। आखिरकार, कुछ महत्वपूर्ण दिन बीत जाने के बाद ही मुख्य चुनाव आयुक्त ने मेरे फोन का जवाब दिया। उन्होंने कहा अगर आयोग धार्मिक त्योहारों को ध्यान में रखकर अपनी योजनाएं बनाने लगा तो चुनाव कराना असंभव हो जाएगा। उन्होंने आगे जोड़ा कि 8 नवम्बर के बाद भी प्रचार के लिए दो दिन बचे रहेंगे। लेकिन कल्पना कीजिए कि मुझे तब कितना धक्का लगा होगा, जब उसी चुनाव आयोग ने इसके तुरंत बाद निर्देश जारी कर दिया कि 13 नवम्बर को होने वाले यूपी, केरल और पंजाब के उपचुनावों को ‘बड़े पैमाने पर सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों’ के कारण 20 नवम्बर तक टाल दिया जाएगा। चुनाव आयोग ने कहा कि इन आयोजनों से ‘बड़ी संख्या में लोगों को असुविधा हो सकती है, कई तरह की लॉजिस्टिक समस्याएं पैदा हो सकती हैं और मतदान के दौरान मतदाताओं की भागीदारी कम हो सकती है।’ जबकि बिहार के मामले में ठीक इन्हीं कारणों के प्रति सरासर संवेदनहीनता दर्शाई गई थी। तो क्या यह सच है कि चुनाव आयोग- जैसा कि उस पर आरोप लगते हैं- दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में निर्वाचन कराने के लिए एक स्वतंत्र, स्वायत्त और निष्पक्ष लोकपाल होने के अपने संवैधानिक कर्तव्य को पूरा नहीं करता है? इससे भी बदतर यह अंदेशा है कि इसके तीन आयुक्त- जो सुप्रीम कोर्ट के इससे विपरीत फैसले के बावजूद- ऐसी प्रक्रिया के माध्यम से नियुक्त किए जाते हैं, जो सत्तारूढ़ पार्टी की अभिरुचि के अनुरूप होती है। क्या यह किसी ऐसी सरकार के लिए सबक नहीं है, जो ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की समर्थक हो, इसके बावजूद चुनाव आयोग उपचुनावों की तारीखें बदलने में एकरूपता का परिचय नहीं देता हो?
इस साल अक्टूबर में हरियाणा विधानसभा चुनाव में बिश्नोई समुदाय की धार्मिक आवश्यकताओं के अनुरूप तिथियों में बदलाव किया गया था। जब मैंने इसका उल्लेख किया तो मुख्य चुनाव आयुक्त का उत्तर था कि इस मामले में त्योहार मतदान की तारीख वाले दिन आ रहा है। जैसे कि मतदान की तिथि से एक सप्ताह पहले लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में त्योहारों के कारण आने वाले व्यवधान का कोई महत्व नहीं हो। जेएसपी ने इस तरह के मनमाने दोहरे मानदंडों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। अब जब हम इस मामले में न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं, यह धारणा गहराती जा रही है कि चुनाव आयोग निष्पक्ष ढंग से काम नहीं करता है। पूर्व आईएएस अधिकारियों द्वारा अपनी अंतश्चेतना को इतनी पारदर्शिता से त्याग देना गहरी पीड़ा का ही विषय है। क्या यह किसी ऐसी सरकार के लिए एक सबक नहीं है, जो ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की समर्थक हो, इसके बावजूद भारत का चुनाव आयोग पर्वों के कारण उपचुनावों की तारीखें बदलने में एकरूपता का परिचय नहीं देता हो?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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