मुझे इस बात को स्वीकार करना होगा कि मैं एक देश, एक चुनाव को लेकर थोड़ा अनिश्चित हूं। इसके लिए सरकार द्वारा जो तर्क दिया जा रहा है, वह मुझे बहुत आकर्षक नहीं लगता। यह कहना कि राष्ट्रीय एकता, सरकारी कार्य-कुशलता या चुनाव में होने वाले खर्च को कम करने के लिए यह जरूरी है, अटकलों पर आधारित ही लगता है। लेकिन जितना अधिक मैं उन तर्कों के बारे में सुनता हूं, जिनकी बुनियाद पर इसकी आलोचना की जा रही है, उतना ही कम मैं उनके बारे में भी आश्वस्त हो पाता हूं। सबसे पहले तो यह स्पष्ट नहीं है कि एक देश, एक चुनाव को भारत की विविधता के प्रति​कूल क्यों माना जा रहा है। चुनावों की टाइमिंग से न तो राष्ट्रीय एकता का कोई ताल्लुक है- जैसा कि सरकार दावा करती है- और न ही इसका सम्बंध देश की विविधता से है- जैसा कि विपक्ष का कहना है। दूसरे, एक देश एक चुनाव पर लगाया जाने वाला यह आरोप भी अनुचित है कि वह चुनावी-लोकतंत्र में व्याप्त अव्यवस्था के प्रति अधीरता प्रदर्शित करता है। यह चुनावों के प्रति पर्याप्त गंभीर है। लगता है कि बहुत-से आलोचक लोकतंत्र को सिर्फ चरणबद्ध चुनावों और राजनीतिक दलों की आपसी प्रतिस्पर्धा तक सीमित करना चाहते हैं। जबकि लोकतंत्र इससे कहीं बढ़कर है। इसके लिए प्रबुद्ध जनमत के निर्माण, सिविल सोसायटी के गठन और नीतियों के साथ सार्वजनिक जवाबदेही के सुमेल की जरूरत है। बार-बार चुनाव कराने की चुनौती यह है कि हम अपने लोकतांत्रिक अस्तित्व के सिर्फ एक ही आयाम के अनुरूप संचालित होते हैं : और वह है पार्टीग​त निष्ठा। जबकि एक देश एक चुनाव वास्तव में सामाजिक आंदोलनों के लिए अच्छा हो सकता है, क्योंकि जिन कारणों से हमारा लोकतंत्र कमजोर हुआ है, उनमें से एक यह है कि हमने पार्टीग​त निष्ठाओं को लोकतंत्र पर पूरी तरह से हावी होने दिया है। अगर हम चुनावों के कारण लगातार उत्पन्न होने वाली इन निष्ठाओं की छाया में न रहें, तो जवाबदेही के दूसरे तरीके उभर सकते हैं। तीसरे, यह स्पष्ट नहीं है कि एक देश एक चुनाव हमारी निर्वाचन प्रणाली को प्रेसिडेंशियल शैली का कैसे बना देगा या यह राज्यों के चुनावों का राष्ट्रीयकरण कैसे कर देगा? लोगों को लगता है कि अगर केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ होते हैं, तो उन पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो जाएंगे। यह दावा कुछ राज्यों से मिले साक्ष्यों पर आधारित है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि अगर एक साथ राष्ट्रीय चुनाव होते हैं, तो उन राज्यों जैसे ही नतीजे ​कैसे मिलेंगे। इसके अलावा, इस तर्क में एक तरह का लोकतंत्र-विरोधी रुख है, जैसे कि मतदाताओं में इतनी समझ नहीं कि स्थानीय बनाम राष्ट्रीय मुद्दों या उम्मीदवारों में अंतर कर सकें। वास्तव में, एक देश एक चुनाव की स्थिति में राष्ट्रीय नेतृत्व को स्थानीय सहयोगियों पर अधिक निर्भर रहना पड़ सकता है, क्योंकि तब वे प्रत्येक राज्य को उतना समय नहीं दे पाएंगे, जितना कि अलग-अलग चुनाव में देते हैं। इसको लेकर चिंताएं जताई जा रही हैं कि एक देश एक चुनाव जनप्रतिनिधि की शक्ति में कमी का संकेत देता है। लेकिन दलबदल विरोधी विधेयक ने पहले ही व्यक्तिगत प्रतिनिधि को अपनी पार्टी का बंधक बना दिया है। फिर, केंद्र में अविश्वास प्रस्ताव लगभग कभी सफल नहीं होते। आजादी के बाद से 27 ऐसे प्रस्तावों में से एक ही सफल हुआ है। आप तर्क दे सकते हैं कि यदि सरकार गिराई जाती है तो विधानसभा की शेष अवधि के लिए चुनावों का सामना करना ज्यादा ईमानदारी की बात होगी, बनिस्बत इसके कि पिछले दरवाजे से सौदेबाजी होती रहें। कभी-कभार विधानसभा का कार्यकाल पांच साल से कम होना अलोकतांत्रिक नहीं है, ताकि सरकार गिरने पर फिर चुनाव कराए जा सकें। दूसरी ओर, एक देश एक चुनाव की ओर बढ़ना संवैधानिक रूप से बोझिल होगा। इससे खर्च कम होने की संभावना नहीं है, खासकर अगर हम उम्मीदवारों के खर्च के बारे में सोचें। यह स्पष्ट नहीं है कि इससे लोकलुभावन योजनाओं के लिए सरकारी खजाने पर दबाव कैसे कम होगा। एक प्रतिस्पर्धी राजनीतिक प्रणाली में, सभी पार्टियां मतदाताओं को जो कुछ भी देना चाहती हैं, उसमें एक-दूसरे से आगे निकलती रहेंगी, चाहे चुनाव कब भी हों। इसका सबसे बड़ा जोखिम पूरे पांच साल तक असंतोष व्यक्त करने के लिए किसी चुनावी तंत्र का नहीं होना है। शायद पांच वर्ष की अवधि के बीच में स्थानीय निकाय चुनाव कराने से स्थानीय लोकतंत्र का महत्व मजबूत हो। लोकतंत्र के लिए अगर नई कल्पनाशीलता की जरूरत है तो उसे चुनावों की टाइमिंग से परे होना चाहिए। सरकार गिरने पर विधानसभा की शेष अवधि के लिए चुनाव कराना ज्यादा ईमानदारी की बात होगी, बनिस्बत इसके कि पिछले दरवाजे से सौदेबाजी होती रहें। कभी-कभार विधानसभा का कार्यकाल 5 साल से कम होना अलोकतांत्रिक नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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