पिछले कई सालों से मैं ‘इलेक्शन ऑन माय प्लेट’ नामक एक टीवी शो कर रहा हूं, जो दर्शकों को चुनाव-अभियान के बारे में बताता है और खाने-पीने की चीजें उनका अतिरिक्त आकर्षण होती हैं। दरअसल, इस शो का ‘स्टार’ खाना ही है, क्योंकि दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है, जो भारत की खाद्य-विविधता की बराबरी कर सके। ऐसे में यूपी और उत्तराखंड पुलिस द्वारा कांवड़ यात्रा के दौरान भोजन की ‘पुलिसिंग’ का सहारा लेना भारतीय होने के मूल अर्थ पर ही प्रहार करना था। आखिर भारत के अलावा और कहां ऐसा हो सकता है कि मदुरै के प्रतिष्ठित मीनाक्षीपुरम् मंदिर के पास अम्माज़ किचन नामक एक अद्भुत रेस्तरां आपको मिले, जो बेहतरीन चेट्टीनाड मांसाहारी भोजन परोसता हो? पुराने जयपुर में एक मुस्लिम परिवार द्वारा पीढ़ियों से चलाया जा रहा तीन मंजिला रेस्तरां आपको और कहां मिलेगा, जो स्वादिष्ट मुगलई भोजन परोसता हो और जो एक ‘शुद्ध’ शाकाहारी भोजनालय के ठीक बगल में स्थित हो? पुणे-सोलापुर राजमार्ग पर आपको जय तुलजा भवानी नामक एक ढाबा और कहां मिलेगा, जहां स्वादिष्ट मटन पकता हो? और भारत के अलावा आपको विजयवाड़ा के केंद्र में एक ऐसी फूड स्ट्रीट और कहां मिलेगी, जहां आधा दर्जन प्रकार की आंध्र बिरयानी इडली-डोसे के साथ ही बेची जाती हो? शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व हमेशा से इस देश की भोजन-कला का सूत्र रहा है। यहां किसी रेस्तरां का मूल्यांकन उसके मालिक के नाम नहीं बल्कि खाने की गुणवत्ता से होता है। ऐसे में यूपी सरकार द्वारा पुलिस को यह ‘निर्देश’ देना कि वह सुनिश्चित करे कि हर स्ट्रीट वेंडर या सड़क किनारे के रेस्तरां पर मालिक के नाम की तख्ती लगी हो, जानबूझकर समाज में विभाजन के बीज बोना था। सरकार का यह दावा अनुचित था कि यह आदेश केवल यह सुनिश्चित करने के लिए था कि यात्रा मार्ग पर कानून-व्यवस्था की कोई गड़बड़ी न हो। पिछले कुछ वर्षों में यात्रियों की खान-पान की आदतों को लेकर कांवड़ यात्रा में कोई विवाद होने का शायद ही कोई सबूत मिला हो। उलटे, सरकार की भेदभावपूर्ण फूड-राजनीति परेशानी का सबब बन सकती थी। नेम-प्लेट लगाने का आदेश वास्तव में सामाजिक अलगाव को दर्शाने वाला था, जो यात्रा मार्ग पर आने वाले लोगों को मुस्लिम स्वामित्व वाले प्रतिष्ठानों के साथ किसी भी तरह के संपर्क से बचने के लिए प्रोत्साहित करता था। भला ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों को अपने यहां आकर्षित करने की इच्छा रखने वाला कौन-सा स्टॉल मालिक ऐसा होगा, जो कांवड़ यात्रियों को ऐसा खाना परोसेगा, जो उनकी धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ हो? यहां पर इस्लामी नियमों के अनुरूप बनाए गए ‘हलाल’ प्रमाणित उत्पादों का हवाला देना भी गलत है। क्योंकि कोई भी किसी को भोजनालय के बोर्ड पर ‘शुद्ध’ शाकाहारी लिखने से नहीं रोकता है। लेकिन किसी विशेष आहार के अनुरूप भोजन को प्रचारित करना धर्म के आधार पर दुकान-मालिक को अलग-थलग करने की कोशिशों से बहुत अलग है। मानो इतना ही काफी नहीं था तो मुस्लिम स्वामित्व वाली दुकानों को ‘अशुद्ध’ और ‘अस्वच्छ’ बताने वाला सोशल मीडिया अभियान भी चल पड़ा। यह एक सांप्रदायिक झूठ है। देश में स्वादिष्ट स्ट्रीट फूड की खोज करते हुए स्वच्छता अक्सर ही चिंता का विषय रहती है, लेकिन यह कभी समुदाय-विशिष्ट नहीं होती। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि खानपान की चीजों के गुणवत्ता-मानकों को बनाए रखा जाए; यह नहीं कि किसी खाने की जगह की स्वच्छता को उसके मालिक की धार्मिक पहचान से आंका जाए। कोरोना की पहली लहर के दौरान भी तबलीगी जमात के हवाले से यह दुष्प्रचार फैलाया गया था कि मुसलमान कोरोना फैलाते हैं। इसके परिणामस्वरूप कई मुस्लिम सब्जी-विक्रेताओं को बहिष्कार का सामना करना पड़ा था। मालूम होता है कांवड़ यात्रा की ‘पवित्रता’ की बात करके योगी सरकार ने कोर-वोटरों के बीच अपनी हिंदुत्ववादी साख को फिर से मजबूत करना चाहा था। लेकिन बहुसंख्यक पहचान की राजनीति अब चुनावी सफलता का गारंटीकृत नुस्खा नहीं रह गई है। 2024 के चुनावों में, भाजपा को यूपी में दलित-मुस्लिम-यादव-ओबीसी वोटों के एकीकरण का सामना करना पड़ा था, क्योंकि पार्टी जमीन पर समावेशी-एजेंडे को आगे बढ़ाने में विफल रही थी। जातिगत विभाजक-रेखाएं भी फिर से उभर रही हैं। अगर आज मुस्लिम दुकानदारों की आजीविका दांव पर है, तो कौन कह सकता है कि कल दलित या निम्न ओबीसी समुदाय निशाने पर नहीं होंगे? देश में स्ट्रीट फूड की खोज करते हुए स्वच्छता अक्सर ही चिंता का विषय रहती है, लेकिन यह कभी समुदाय-विशिष्ट नहीं होती। खाने की दुकान की स्वच्छता को उसके मालिक की धार्मिक पहचान से नहीं आंक सकते।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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