अगले महीने होने जा रहे महाराष्ट्र के चुनावों में दो शब्द सबसे ज्यादा चर्चा में रहने वाले हैं : ‘लाड़की बहिन’। सरकार की यह फ्लैगशिप योजना- जिसके तहत 2,50,000 रुपए से कम वार्षिक आय वाले परिवारों की महिलाओं को हर महीने 1500 रुपए दिए जाते हैं- बहस का विषय बन गई है। सवाल उठता है कि क्या इस साल अगस्त से अब तक 2 करोड़ से ज्यादा महिलाओं के बैंक खातों में डाली गई रकम राज्य में सत्तारूढ़ महायुति-गठबंधन के खिलाफ किसी भी सत्ता-विरोधी भावना को दूर करने के लिए काफी होगी? यह पहली बार नहीं है, जब राज्य या केंद्र में किसी पार्टी की सरकार ने चुनाव से पहले सौगातें दी हैं। लेकिन इससे पहले कभी भी किसी चुनाव से ठीक पहले अचानक, बिना किसी संकोच के और सरकारी खजाने पर इसके असर की अनदेखी करके यह सौगात नहीं दी गई। अगले महीने जब मतदान होगा, तब तक ‘लाड़की बहिन’ योजना की अधिकांश लाभार्थी महिलाओं के खाते में 7,500 रुपए आ चुके होंगे, जिसमें चुनाव आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले घोषित ‘दिवाली बोनस’ भी शामिल है। इस योजना का सालाना खर्च लगभग 46,000 करोड़ रुपए होगा। एक वरिष्ठ नौकरशाह के अनुसार, ऐसी ‘तिजोरी खोलो’ राजनीति के चलते ही आज महाराष्ट्र का कर्ज-अनुमान 7.8 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया है। इसे विपक्षी महाविकास अघाड़ी को पूरी तरह से चौंका देने के लिए बनाई गई चतुर राजनीति के रूप में देखा जा सकता है। लोकसभा चुनाव में हार के बाद- जहां सत्तारूढ़ गठबंधन ने 48 में से सिर्फ 17 सीटें जीतीं- एकनाथ शिंदे सरकार को प्रमुख वोटर-समूहों को आकर्षित करने के लिए नए तरीके तलाशने पड़े हैं। महिलाएं और युवा दो टारगेट-वोटबैंक थे। महिलाओं को नगद सहायता दी गई, बेरोजगार युवाओं को ‘लाड़का भाऊ’ योजना के तहत नगद स्टाइपेंड दिया गया। लेकिन ऐसी योजनाओं को सत्ता हथियाने के लिए ‘जो भी करना पड़े’ की मानसिकता के एक और चिंताजनक संकेत के रूप में देखा जाना चाहिए। पिछले पांच वर्षों में महाराष्ट्र राजनीतिक रूप से देश का सबसे अस्थिर राज्य बन गया है। पांच साल में तीन सरकारें, सुबह-सवेरे चुपके से शपथ लेने वाले मुख्यमंत्री, दो क्षेत्रीय दलों का टूटना, मंत्री पद के लालच में विधायकों का पाला बदलना- यह राज्य भारतीय राजनीति के पूर्ण नैतिक पतन का प्रतीक बन गया है। ‘वॉशिंग मशीन’ और ‘खोखे ची सरकार’ (एक ‘खोखा’ यानी एक करोड़ रुपए) जैसे शब्द अब राज्य की राजनीतिक शब्दावली का हिस्सा बन गए हैं। यह दर्शाता है कि कैसे धनबल और सौदेबाजी ने राजनीति को भ्रष्ट कर दिया है। विचारधारा नाम की कोई चीज नहीं बची है : पिछले 15 वर्षों में राज्य के लगभग एक-तिहाई विधायक एक से अधिक पार्टियों में रह चुके हैं। 2022 में, प्रधानमंत्री ने मतदाताओं को ‘रेवड़ी’ संस्कृति के खिलाफ आगाह करते हुए कहा था कि यह देश के लिए बहुत खतरनाक है। उन्होंने कहा था कि लोगों को लगता है कि मुफ्त रेवड़ी बांटने से वोटरों को खरीदा जा सकता है। प्रधानमंत्री कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस द्वारा किए गए नगद ‘गारंटी’ के वादों और दिल्ली और पंजाब में मुफ्त बिजली-पानी उपलब्ध कराने के आप के दावों की ओर इशारा कर रहे थे। दो साल बाद, महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा भाजपा ‘लाड़की बहिन’ योजना का श्रेय यह दावा करके ले रही है कि इससे महाराष्ट्र की महिलाएं सशक्त होंगी। लेकिन मतदाताओं को ‘रिश्वत’ देने और उन्हें ‘सशक्त’ बनाने के बीच की रेखा बहुत पतली होती है, खासकर तब जब चुनाव से कुछ महीने पहले ही ऐसी कोई योजना लागू की जाती हो। नगदी-संचालित योजनाओं के केंद्र में मुख्यत: महिलाएं आ गई हैं। 2023 में, शिवराज सिंह चौहान ने अपनी ‘लाडली-बहना’ योजना के साथ मध्य प्रदेश चुनाव के नतीजों को पलट दिया था। तमिलनाडु में तो मुफ्त की सौगातों को लगभग संस्थागत रूप दे दिया जा चुका था। सेल-फोन से लेकर रंगीन टीवी तक, हर चुनाव में आकर्षक उपहार पेश किए जाते रहे थे। 2024 के अपने लोकसभा चुनाव घोषणा-पत्र में, कांग्रेस ने भी देश भर में गरीब महिलाओं के खातों में सालाना एक लाख रुपए जमा करने का वादा किया। राहुल गांधी ने आश्वासन दिया कि अगर आप गरीबी रेखा से नीचे हैं, तो हर साल एक लाख रुपए ‘खटाखट’ आते रहेंगे। तब भाजपा ने इस ‘खटाखट’ राजनीति को गैर-जिम्मेदाराना करार दिया था, लेकिन अब शिंदे सरकार की ‘फटाफट’ कैश-डिलीवरी को गेम-चेंजर बताया जा रहा है। सवाल किसानों या गरीब महिलाओं की मदद का नहीं, सरकार के इरादों और प्राथमिकताओं का है। जो सरकारें पांच साल तक वेलफेयर योजनाओं में पैसा नहीं लगा पाई हों, वो चुनाव आते ही कैश-ट्रांसफर कैसे करने लग जाती हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)