जब कांग्रेस ने लगातार दो लोकसभा चुनावों (2014 और 2019) में खराब प्रदर्शन किया था तो असंतोष के कई स्वर उठे थे। उसके कई नेता पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में शामिल हो गए थे। इनमें से कई तो भाजपा में चले गए। वहीं पिछले एक दशक के दौरान जब भाजपा केंद्र और कई राज्यों में सत्ता में रही, तो वह एक बेहद अनुशासित पार्टी की तरह नजर आई। हाईकमान के निर्णयों पर कोई सवाल नहीं उठाता था। लेकिन अब जब भाजपा को लोकसभा चुनावों में कुछ नुकसान हुआ है और उसकी सीटों की संख्या 303 से घटकर 240 हो गई है, तो कुछ नेता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के फैसलों के बारे में सवाल पूछने लगे हैं। हालांकि चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है और गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रही है, इसके बावजूद विभिन्न हलकों से बेचैनी के स्वर सामने आ रहे हैं। सवाल उठता है कि सत्ता में शामिल लोगों को क्या आपस में बांधता है- अनुशासन या चुनावी सफलता? ऐसा नहीं है कि भाजपा खतरे में है या केंद्रीय नेतृत्व को गंभीर चुनौती दी जा रही है, लेकिन विभिन्न राज्यों से सामने आ रही घटनाएं इस बात का संकेत देती हैं कि लोकसभा चुनावों में उम्मीद से खराब प्रदर्शन के बाद पार्टी के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है। हाल ही में कोलकाता में हुई भाजपा की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता और भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ (2014 में प्रधानमंत्री द्वारा गढ़े गए प्रसिद्ध नारे) को समाप्त करने और अल्पसंख्यक-मोर्चे को भंग करने का कुख्यात आह्वान किया और इसकी जगह एक नया नारा गढ़ा- ‘जो हमारे साथ, हम उनके साथ’। हालांकि बाद में वे अपने बयान से पीछे हट गए। लेकिन उनके बयान को भाजपा हाईकमान द्वारा खुद की री-ब्रांडिंग करने के प्रयासों के प्रति हताशा की अभिव्यक्ति के रूप में पढ़ा जा सकता है। ध्यान रहे पार्टी पसमांदा मुसलमानों तक पहुंच को बढ़ाना चाहती है। उसकी यह परियोजना बंगाल में तो विफल रही है। मतदान-पैटर्न के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि भाजपा को पसमांदा मुसलमानों के वोट नहीं मिले और 2024 में उसका प्रदर्शन तो 2019 से भी खराब रहा। पूर्व राज्य भाजपा प्रमुख दिलीप घोष ने भी स्थापित नेताओं को जीतने वाली सीटों से चुनौतीपूर्ण सीटों पर भेजने की रणनीति की आलोचना की। यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी तब असंतोष जताया, जब उन्होंने 14 जुलाई को भाजपा की राज्य कार्यसमिति को संबोधित करते हुए कहा कि ‘अति आत्मविश्वास’ के कारण भाजपा का पतन हुआ। हालांकि इसे क्षणिक अभिव्यक्ति माना जाना चाहिए, क्योंकि योगी ने उसी संबोधन की शुरुआत 2014 और 2019 के लोकसभा और 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में यूपी में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करके की थी। वहीं हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता प्रेम कुमार धूमल ने पार्टी की राज्य स्तरीय रणनीति पर सवाल उठाते हुए स्पष्ट रूप से कहा कि छह बागियों और तीन निर्दलीयों को भाजपा में शामिल करने के बारे में उन्हें जानकारी नहीं है और उन्होंने पार्टी की जल्दबाजी की आलोचना की। कृषि और ग्रामीण विकास मंत्री के रूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने के बाद मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नई दिल्ली से भोपाल तक की भव्य ट्रेन यात्रा को भी एक नेता के रूप में उनकी लोकप्रियता को प्रदर्शित करने वाला साहसिक राजनीतिक प्रयास माना जा रहा है। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली महायुति सरकार में भाजपा नेता और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अब लड़खड़ाती भाजपा को पुनर्जीवित करने के लिए अपने प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए इस्तीफा देने की सार्वजनिक घोषणा की, जिसे स्वायत्तता का एक साहसिक बयान माना जा रहा है। असम सीएम हिमंत बिस्वा सरमा को भी पार्टी के भीतर असंतोष का सामना करना पड़ा है। यह भाजपा विधायकों मृणाल सैकिया और सिद्धार्थ भट्टाचार्य द्वारा जोरहाट से जीत के बाद कांग्रेस नेता गौरव गोगोई को दी गई बधाई वापस लेने से इनकार करने से उत्पन्न हुआ है। सैकिया ने यहां तक कह दिया कि पैसे, प्रचार और अहंकारी भाषण हमेशा ही चुनाव जीतने में मदद नहीं करते हैं। इससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि भाजपा ने इन विधायकों के खिलाफ कोई कार्रवाई शुरू करने के बजाय चुप रहना ही उचित समझा है। तमिलनाडु में भी पार्टी के भीतर खटपट है, हालांकि वह एक ऐसा राज्य है, जहां हमेशा से भाजपा कमजोर रही है। भाजपा के भीतर अलग-अलग राज्यों में हो रही खटपट यह दर्शाती है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। यह इस बात का संकेत है कि सफलता आपको एक साथ जोड़े रखती है, वहीं छोटी-सी विफलता भी इसे खत्म कर सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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