संसद का शीतकालीन सत्र इंडिया गठबंधन के लिए अच्छा नहीं रहा है। विपक्ष में एकजुटता नहीं दिखी। अदाणी मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने के लिए राहुल गांधी का जुनून एकतरफा ही रह गया। उलटे, कई विपक्षी नेताओं ने कांग्रेस द्वारा सदन की कार्यवाही में लगातार व्यवधान उत्पन्न करके सत्रों को स्थगित करवाने के लिए खुले तौर पर उसकी आलोचना की। इससे भी बुरी बात यह रही कि ममता बनर्जी से इंडिया ब्लॉक का नेतृत्व संभालने के लिए गुहार की जाने लगी। राजद के लालू यादव- जो लंबे समय से गांधी परिवार के समर्थक और सहयोगी हैं- भी ममता के साथ खड़े हो गए। यह सब राहुल गांधी के प्रति बढ़ते अविश्वास को दिखाता है। इंडिया ब्लॉक के भविष्य को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। अभी मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल को छह महीने ही हुए हैं और लोकसभा चुनावों में जिस गठबंधन ने भाजपा को बहुमत के आंकड़े से नीचे समेट दिया था, उसमें दरारें उभरने लगी हैं। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि खुद राहुल गांधी को इसका अंदाजा है या नहीं कि उनकी नाक के नीचे क्या घटित हो रहा है। जब उनसे कहा गया कि ममता बनर्जी चाहती हैं कि इंडिया ब्लॉक संसद में जनता से जुड़े मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करे, तो उन्होंने कहा कि अदाणी का मामला भी जनता से जुड़ा हुआ है। कांग्रेस सांसदों के साथ एक बैठक में जब उनसे ममता द्वारा विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व संभालने की बढ़ती मांग के बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्पष्ट रूप से इस विचार को मीडिया की अटकलें कहकर खारिज कर दिया। राहुल का शुतुरमुर्गी रवैया हैरान करने वाला है। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद तो यह उनके लिए और स्पष्ट हो जाना चाहिए था कि उन्हें भाजपा को रोकने के लिए इंडिया ब्लॉक की अधिक आवश्यकता है। चाहे वे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी हों या झारखंड में हेमंत सोरेन या कश्मीर में उमर अब्दुल्ला- इन क्षेत्रीय क्षत्रपों ने दिखाया है कि उनके पास भाजपा से लड़ने का माद्दा है। दूसरी ओर, कांग्रेस हर जगह भाजपा को चुनौती देने में विफल रही है। वो महाराष्ट्र और हरियाणा में भी हार गई, जहां लोकसभा चुनावों में उसके पास अच्छी बढ़त थी। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में लौट गए थे। ऐसे में इंडिया गुट को एकजुट रखने के लिए कौशल, धैर्य और सबसे बढ़कर विनम्रता की आवश्यकता थी। कांग्रेस ने तीनों ही चीजें दिखाकर सबको चौंका दिया था। जब ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में अपने दम पर चुनाव लड़ने के लिए इंडिया से संबंध तोड़ लिए, तब भी कांग्रस ने गरिमापूर्ण चुप्पी बनाए रखी। सबसे बढ़कर, उसने सीट-बंटवारे के दौरान अहंकार का प्रदर्शन नहीं किया और सहयोगियों को समायोजित करने के लिए अब तक की सबसे कम सीटों पर चुनाव लड़ा। यह रणनीति कारगर भी साबित हुई और कांग्रेस ने 99 सीटें जीतकर दस साल में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। जब राहुल ने विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी संभाली तो इंडिया गुट के सहयोगियों ने विनम्रतापूर्वक उनके लिए रास्ता छोड़ दिया। उन्हें गठबंधन के नेता के रूप में भी स्वेच्छा से स्वीकारा गया, हालांकि इंडिया में संयोजक को नामजद करने या संचालन समिति की नियुक्ति के लिए कोई औपचारिक संरचना नहीं है। लेकिन राजनीति में परिवर्तन ही एकमात्र स्थायी चीज है। विधानसभा चुनावों में शानदार वापसी के बाद भाजपा फिर से राजनीतिक पटल पर उभर रही है। राहुल गांधी और कांग्रेस देश के मूड में आए इस बदलाव को भांपने में विफल रहे हैं। ऐसे में इंडिया ब्लॉक के लिए संसद में एकजुटता दिखाना जरूरी था, जो विधानसभा चुनावों के बाद आमने-सामने की लड़ाई का पहला मंच था। लेकिन राहुल ने सहयोगियों की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए अपने अदाणी एजेंडे को आगे बढ़ाने पर जोर दिया, जिससे इंडिया गुट में दरारें पैदा हो गईं। भाजपा के लिए तो यह मनमांगी मुराद थी। राहुल गांधी उन दिनों से बहुत आगे निकल आए हैं, जब उन्हें भारतीय राजनीति में नौसिखिया समझा जाता था। लेकिन जाहिर है कि अभी उन्हें बहुत लंबा रास्ता तय करना है। वे चाहें तो अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी से सबक सीख सकते हैं। दोनों ने अपने सहयोगी दलों की भावनाओं के प्रति सम्मान और सहमतिपूर्ण दृष्टिकोण दिखाते हुए बहुरंगी गठबंधनों का सफल नेतृत्व किया था। जब तक कांग्रेस चुनावी-राजनीति में अपनी जड़ें मजबूत नहीं कर लेती, उसे इंडिया ब्लॉक की जरूरत है। इसमें टूट को वो हाल-फिलहाल तो बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। राहुल के प्रति अविश्वास बढ़ रहा है। अभी मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल को छह महीने ही हुए हैं और आम चुनावों में जिस इंडिया गठबंधन ने भाजपा को बहुमत के आंकड़े से नीचे समेट दिया था, उसमें दरारें उभरने लगी हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)