सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) प्रमुख माधवी बुच पर लगे आरोपों के बाद ये संस्था भी खबरों में है। 1988 में सेबी की शुरुआत सीमित अधिकारों वाली संस्था के रूप में हुई थी, लेकिन 1992 के सेबी अधिनियम ने इसे कई अहम शक्तियां दीं। सेबी इसका श्रेय ले सकता है कि उसने 3 लाख करोड़ रु. के छोटे व अप्रभावी बाजार, जिसमें 1% से भी कम आबादी की भागीदारी थी, उसको बदलकर अब 450 लाख करोड़ रु. के पूंजीकरण वाले बाजार में तब्दील कर दिया है, जिसमें 4 करोड़ से ज्यादा निवेशकों का खाता है। ऐसा नहीं है कि सेबी का रिकॉर्ड पूरी तरह बेदाग रहा है। कई विशेषज्ञों ने नियमों के पालन में इसकी ढिलाई, दोषियों को पकड़ने और गलत तरीके से कमाई करने वाले बेईमान मार्केट ऑपरेटर्स से पैसे वापस कराने में इसकी सक्षमता पर सवाल उठाए हैं। सेबी रिसर्च संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए और भी कदम उठा सकता था, जिससे ठोस तथ्यों पर आधारित नीतियां बनाई जा सकतीं। हालांकि, समग्र रूप से प्रतिभूति बाजार के विकास में सेबी की भूमिका को मानना होगा। इसी संदर्भ में वर्तमान सेबी प्रमुख पर लगे आरोप चिंताजनक हैं। जब माधवी बुच ने सेबी प्रमुख का पद संभाला, तो सरकार ने एक नौकरशाह को इस पद पर नियुक्त करने की परंपरा से हटकर यह कदम उठाया था। हालांकि, तकनीकी रूप से वह पहले से ही एक पूर्णकालिक सदस्य थीं, और बाजार के विशेषज्ञों ने उन्हें निजी वित्तीय सेवाओं की इंडस्ट्री से जुड़ी काबिल व्यक्ति के रूप में देखा, जिनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि भी बेहतरीन थी। उन्होंने काफी हद तक उम्मीदों पर खरा उतरते हुए काम किया। उन्होंने दोषी प्रमोटर्स को न्याय के दायरे में लाने, निगरानी व्यवस्था को मजबूत करने, खुदरा निवेशकों को वायदा बाजार के जोखिमों के बारे में चेतावनी देने और ऊंचे वैल्यूएशन को “बुलबुला’ कहने जैसे ठोस कदम उठाए। उनकी कॉरपोरेट गवर्नेंस पर दी गई प्राथमिकता सराहनीय थी, खासकर जब सार्वजनिक बाजारों से रिकॉर्ड पूंजी जुटाई जा रही थी। हालांकि सेबी प्रमुख पर अभी सिर्फ आरोप हैं और हर नागरिक की तरह, बुच को भी तब तक निर्दोष माना जाना चाहिए जब तक वह दोषी साबित नहीं हो जातीं। लेकिन सेबी प्रमुख के पद पर उनका बने रहना एक अलग मुद्दा है। इस पद की जिम्मेदारी को देखते हुए, इसका प्रमुख ऐसा होना चाहिए जिस पर निवेशक पूरी तरह भरोसा कर सकें। यह पद जीवी रामकृष्ण जैसे प्रभावशाली व्यक्तियों ने संभाला और इसकी एक मजबूत नौकरशाही परंपरा रही है। बुच को भी ऐसे कदम उठाने होंगे जो इस परंपरा को बरकरार रखें और यह सुनिश्चित करें कि आम भारतीय निवेशक सेबी पर अपने निवेश की सुरक्षा के लिए ईमानदारी से काम करने का भरोसा कर सके। सेबी से उठती अफवाहें देखकर कोई भी सोच सकता है कि वहां कुछ गड़बड़ तो नहीं है। अब समय आ गया है कि बुच और सेबी का बोर्ड वही मानक अपनाए, जो किसी कंपनी के सीईओ पर संदेह होने पर उसके बोर्ड से अपेक्षित होते हैं। उन्हें एक्सिस बैंक के पूर्व प्रबंध निदेशक पीजे नायक से सीख लेनी चाहिए, जब 2002 में ग्लोबल ट्रस्ट बैंक के असफल विलय से जुड़े आरोपों के बाद उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाई थी। उन्हें इसी तरह जवाबदेही की परंपराओं का पालन करना चाहिए। यह कहना गलत है कि पद से हटना किसी अपराध को कबूल करने जैसा होगा, क्योंकि यह वही तर्क है जो अक्सर पद पर बने रहने के लिए विवादित नेताओं द्वारा दिया जाता है। देश के नागरिकों को सेबी के प्रमुख से इससे बेहतर उम्मीद होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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