पिछले एक दशक से हरियाणा में सत्ता पर काबिज भाजपा के सामने इस बार कड़ी चुनौती है, क्योंकि मतदाताओं में भाजपा के प्रति नाराजगी है। कांग्रेस को फायदा हो सकता है, हालांकि कई छोटे क्षेत्रीय दल अकेले या गठबंधन में मैदान में हैं। जननायक जनता पार्टी (हाल तक हरियाणा में भाजपा सरकार में सहयोगी) अब चंद्रशेखर आजाद की आजाद पार्टी के साथ गठबंधन में है और बसपा, इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) और आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन में लगभग सभी 90 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन अधिकतर सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास हरियाणा विधानसभा चुनाव जीतने का अच्छा मौका इसलिए है, क्योंकि उसे सत्ता विरोधी वोटों का सबसे बड़ा फायदा होगा, बल्कि इसलिए भी क्योंकि कांग्रेस को इस समय हरियाणा के मतदाताओं के बीच अच्छा समर्थन प्राप्त है। 2024 के लोकसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन इसका प्रमाण है। क्षेत्रीय दल भले ही महत्वपूर्ण संख्या में सीटें न जीत पाएं, लेकिन अगर भाजपा विरोधी वोट बंटते हैं तो वे कांग्रेस के लिए खेल जरूर बिगाड़ सकते हैं। हरियाणा में भाजपा केवल एंटी-इनकम्बेंसी के कारण ही अपने को मुश्किल स्थिति में नहीं पाती है, उसके लिए यह भी नुकसानदायक हो सकता है कि टिकट न मिलने से पार्टी के नेताओं में बड़े पैमाने पर नाराजगी है और वे दलबदल कर रहे हैं। चुनाव से पहले अभी तक तीन दर्जन से अधिक नेता पार्टी छोड़ चुके हैं, जिनमें से कुछ तो गैर-जाट समुदायों में भाजपा की रीढ़ रहे हैं। इस रणनीति को ही भाजपा ने पिछले एक दशक के दौरान सफलतापूर्वक अपनाया था। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि पिछले पांच सालों में हरियाणा में भाजपा के जनाधार में गिरावट आई है। लोकसभा चुनावों में भाजपा 46.1% वोटों के साथ 10 में से 5 सीटें जीतने में सफल रही थी, जबकि कांग्रेस 43.7% वोटों के साथ शेष 5 सीटें भाजपा से छीनने में सफल रही। भाजपा के वोट-शेयर में 12% (2019 की तुलना में) की गिरावट आई, जबकि कांग्रेस ने 2019 के अपने वोट-शेयर में 15.3% वोट जोड़े। ये इस बात का संकेत है कि हरियाणा में हवा किस तरफ बह रही है। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि 2019 के लोकसभा चुनावों के कुछ महीने बाद जब 2019 में ही हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए थे, तो भाजपा ने उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं किया था। उसे 36.5% वोट और 40 सीटें मिली थीं। हरियाणा के मतदाताओं ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सभी 10 सीटों पर जीत दिलाई थी, लेकिन राज्य में अपनी सरकार चुनने के लिए अलग तरीके से मतदान करने का फैसला किया। जबकि तब तो पहलवान, किसान और जवान के मुद्दे भी मौजूद नहीं थे। तब जनता में राज्य सरकार और मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के प्रदर्शन को लेकर नाराजगी थी। अगर भाजपा लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन के बावजूद 2019 के विधानसभा चुनाव में अच्छी जीत हासिल नहीं कर सकी, तो अब अपने प्रदर्शन में सुधार कैसे करेगी? 2019 में जब भाजपा हरियाणा में अपनी सरकार का बचाव कर रही थी, तो उसे पांच साल की एंटी-इन्कम्बेंसी का सामना करना पड़ रहा था। अब तो 10 साल पुरानी एंटी-इन्कम्बेंसी है। 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मनोहर लाल खट्टर की जगह नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाना एक तरह से भाजपा द्वारा लोगों की नाराजगी को स्वीकार करना था। चुनाव में भाजपा को कुछ हद तक सजा मिली। नतीजों के बाद भी वोटरों का मूड बदला हुआ नहीं दिख रहा है। हरियाणा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर भाजपा की निर्भरता की भी परख होने वाली है। लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वेक्षणों से पता चलता है कि नरेंद्र मोदी की अपने व्यक्तिगत करिश्मे के दम पर भाजपा के लिए वोट जुटाने की क्षमता विधानसभा चुनावों की तुलना में लोकसभा चुनावों में कहीं ज्यादा मजबूत होती है। दूसरी तरफ 2019 के मुकाबले अब हरियाणा में राहुल गांधी की लोकप्रियता बढ़ रही है। कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है, लेकिन उसका राज्य-नेतृत्व (भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कुमारी शैलजा) अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद मनोहर लाल खट्टर और नायब सिंह सैनी वाले भाजपा के राज्य नेतृत्व की तुलना में अधिक सशक्त दिखता है। इससे कांग्रेस बेहतर स्थिति में जरूर है, लेकिन कुछ सीटों पर उसके वे नाराज नेता जरूर खलल डाल सकते हैं, जो टिकट नहीं मिलने से क्षुब्ध हैं। कांग्रेस को इस पर नजर रखना होगी और पार्टी में भितरघात सहित छोटे क्षेत्रीय दलों को ध्यान में रखते हुए अपनी रणनीति बनानी होगी। पहलवान, किसान और जवान : ये तीन मुद्दे हरियाणा विधानसभा चुनाव में जीत की कुंजी साबित हो सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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