‘इस डिग्री के साथ तुम्हें क्या नौकरी मिलेगी?’ स्नातक कर रहे 20 साल के सभी विद्यार्थियों से मैं ये सवाल पूछता हूं और वो इसलिए क्योंकि इस इंडस्ट्री के ट्रेंड लगातार बदल रहे हैं। विदेश के आईवी शैक्षणिक संस्थानों (सबसे प्रतिष्ठित 8 संस्थान)में पढ़ रहे ज्यादातर भारतीय स्टूडेंट्स न सिर्फ स्पष्टता से बात करते हैं, दिलचस्प रूप से उन्हें ये भी पता है कि असहज होकर सहज होना सफलता का पहला कदम है! उन्हें असली साक्षात्कार का सामना करने और अस्वीकृति पर कारणों का आत्मावलोकन करने के लिए भी कहा जाता है। इससे असफलता के चलते डिप्रेशन से लड़ने में मदद मिलती है। उन्हें पता होता है कि वे यहां समस्याएं सुलझाने, इनोवेट करने व ऐसे व्यक्ति के रूप में पहचान बनाने आए हैं जो एक दिन दुनिया बदल देंगे और अमेरिकी दिखावे-चकाचौंध में नहीं खोएंगे। ये स्पष्टता उनमें इसलिए है क्योंकि भारतीय माता-पिता मजबूत नींव रखते हैं। सार्थक गर्ग इनमें से एक हैं, जो जयपुर से 12वीं के बाद अभी न्यूयॉर्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में फाइनेंशियल इकोनॉमिक्स में चार साल का स्नातक कर रहे हैं। उन्होंने मुझे मेल लिखा, ‘वैसे मैंने आपका लिखा सीधे तौर पर नहीं पढ़ा, पर मेरे लिए आपका नाम जाना-पहचाना है क्योंकि मेरी मां आपके आर्टिकल रोज पढ़ती हैं, जिस पर रोज सुबह की चाय में खूब बातें निकलती हैं। कितनी बार मुझे मेरी उन आदतों के लिए डांटा पड़ी जिन्हें आपने लेखों में खराब बताया है’। उसने मिलने का समय मांगा और मैंने कॉफी पर मिलने का तय किया। जब मैंने इसका कारण पूछा तो वह बोला, ‘आज के नियोक्ता बीते दशकों से बिल्कुल अलग हैं और अच्छे उम्मीदवारों के लिए उनकी मांगें-इच्छाएं नए तरीके से उभर रही है। ज्यादातर नियोक्ता टेक्निकल स्किल के साथ कम्युनिकेशन जैसे सॉफ्ट स्किल व टीम के साथ काम करने में काबिल लोग चाहते हैं। मैं आपसे कम्युनिकेशन पर एक-दो आइडिया चाहता हूं’। मुझसे मिलने के लिए उसे किसी और ने नहीं बल्कि उसकी मां रीना गर्ग ने कहा था। इसे ही मैं बड़ों की बातों का सम्मान करने की संस्कृति कहता हूं। और तब मुझे समझ आया कि यहां आने वाले छात्र सार्थक की तरह पहले वर्ष में ही क्रिटिकल थिंकिंग व कम्युनिकेशन को प्राथमिकता देने में कामयाब रहे हैं। हालांकि पढ़ाने वालों को आजादी नहीं होती कि ये कौशल सिखाने के लिए अलग से समय दे सकें, ऐसे में शैक्षणिक संस्थाओं ने कई संग्रहालयों या ब्रॉडवे जैसे सबसे बड़े थिएटर से अनुबंध किया है ताकि फ्री या छूट के साथ टिकटें मिल सकें। यहां स्टूडेंट्स ड्रामा देखते हैं और उनकी संस्कृति, ड्रेसिंग सेंस समझने का मौका मिलता है और उभरते समाज में प्रभावशाली संचार के प्रभाव को समझने में सबसे ऊपर भाषा को भी समझते हैं। मेरे हिसाब से ये तरीका बिल्कुल नया है और भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी ऐसा नहीं करती, कम से कम मैंने तो नहीं सुना। उनमें से कुछ स्टूडेंट्स पेरिस में सेल्स व बिजनेस डेवलपमेंट बूटकैंप ‘iconoClass’ (कुछ हफ्तों या तीन महीने का कोर्स) में जाते हैं। 2019 से संचालित हो रहा ये कोर्स छात्रों को विभिन्न ब्रांड का घर-घर प्रचार करने देता है। ये कोर्स पूरा करने वालों का प्लेसमेंट भी 97% है। हालांकि कई बार शर्मिंदगी भी झेलने पड़ती है, जब कोई ग्राहक चेहरा देखते ही दरवाजे बंद कर लेते हैं। याद रखें, उन्हें अस्वीकृतियों का सामना करने के लिए ट्रेंड किया जाता है। हमारे भारतीय बच्चे इसका बहादुरी से सामना करते हैं। फंडा यह है कि हमारे छात्र विदेशों में अच्छा करते हैं क्योंकि हमने अपनी संस्कृति से उनकी मजबूत बुनियाद रखी है और विदेश में उच्च शिक्षा के लिए आज के करिकुलम को कल के बदलते करियर से जोड़कर कल के बेस्ट वर्कफोर्स के रूप में तैयार करना आसान हो जाता है।

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