फरवरी 1998 में प्रतिष्ठित पत्रिका ‘द लांसेट’ ने एमएमआर वैक्सीन को ऑटिज्म से जोड़ने वाला एक अध्ययन प्रकाशित किया। लोग अपने बच्चों के टीकाकरण को लेकर सशंकित हो गए और यूरोप के कई देशों और दुनिया के अन्य हिस्सों में एमएमआर वैक्सीन कवरेज में बड़ी गिरावट आई। एक दशक बाद खुलासा हुआ कि ‘द लांसेट’ में छपे अध्ययन के प्रमुख लेखक डॉ. एंड्रयू वेकफील्ड ने फर्जी डेटा का इस्तेमाल करके वित्तीय लाभ उठाया था। फरवरी 2010 में उस पेपर को प्रतिबंधित कर दिया गया। हालांकि बीच के 12 वर्षों में खासी क्षति हुई और कई बच्चे ऐसी बीमारियों से पीड़ित हुए, जिन्हें एमएमआर टीकों द्वारा रोका जा सकता था। उससे भी बड़ी समस्या उभरकर आई कि लोग टीकों की बारे में भ्रांतियां फैलाते हैं, जिससे दुनिया भर में जनता में टीकों को लेकर झिझक पैदा होती है। 2019 की शुरुआत में, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैक्सीन हिचकिचाहट को दस बड़ी वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों में से एक बताया था। कोविड-काल में हमने टीकों के बारे में कई अफवाहें सुनी थीं। यही कारण था कि शुरुआत में टीकों का कवरेज कम रहा। टीकों को लेकर झिझक की जड़ में गलत सूचना और कभी-कभी गलतफहमी होती है। टीकों के लाभ सिद्ध और ज्ञात हैं। वे संक्रमण और बीमारियों को रोकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अस्पताल में भर्ती होना और मौतें घटती हैं। पिछली दो शताब्दियों में टीकों ने करोड़ों बच्चों व वयस्कों को बीमारियों से बचाया है। टीके सुरक्षित होते हैं लेकिन पूरी तरह जोखिम मुक्त नहीं। इस तरह का जोखिम किसी भी दवा के साथ हो सकता है। पेरासिटामोल को सबसे सुरक्षित दवाओं में से एक माना जाता है, लेकिन यह भी लीवर या किडनी को नुकसान पहुंचा सकती है। हालांकि दवाएं बीमार लोगों को दी जाती हैं, इसलिए वो इससे जुड़े जोखिम को स्वीकार करने के अधिक इच्छुक होते हैं। जबकि टीके स्वस्थ व्यक्तियों को दिए जाते हैं। यही कारण है कि टीकों को अधिक से अधिक सुरक्षित बनाने के प्रयास किए जाते हैं। टीके तभी लगाए जाते हैं, जब इनके फायदे अधिक माने जाते हैं। एस्ट्राजेनेका कंपनी द्वारा निर्मित वैक्सीन- जिसे भारत में कोविशील्ड के रूप में उत्पादित किया गया है- द्वारा ब्रिटेन की अदालत में यह स्वीकार किया गया है कि वैक्सीन में रक्त के थक्के जमने के दुर्लभ दुष्प्रभाव हैं। यह नया खुलासा नहीं है। लाइसेंस के बाद से ही यह पाया गया कि इस टीके के परिणामस्वरूप टीटीएस (थ्रोम्बोसिस थ्रोम्बोसाइटोपेनिया सिंड्रोम) और वीआईटीटी (वैक्सीन-प्रेरित इम्यून थ्रोम्बोटिक थ्रोम्बोसायटोपेनिया) जैसे दुर्लभ प्रभाव हो सकते हैं। टीटीएस को 30 वर्ष से कम उम्र के लोगों में अधिक देखा गया था। ये मामले यूरोपीय देशों में अधिक थे। विशेषज्ञों का मानना था कि इन दुर्लभ प्रतिकूल घटनाओं के साथ कुछ जातीय संबंध थे। ये जॉनसन एंड जॉनसन द्वारा निर्मित एडिनोवायरस वेक्टर वैक्सीन में भी देखे गए थे। इन सभी को पिछले तीन वर्षों में वैज्ञानिक जर्नल्स में नियमित रूप से छापा गया है। लोगों के मन में सवाल हैं कि क्या भारत में दिल के दौरे जैसी घटनाओं का वैक्सीन से होने वाली क्लॉटिंग से सम्बन्ध हो सकता है? संक्षेप में जवाब यह है कि ऐसी आशंका बहुत कम है। भारत में हुए स्वतंत्र वैज्ञानिक और एपिडेमियोलॉजिकल डाटा में इन टीकों और दिल के दौरों में कोई सम्बन्ध नहीं मिला था। ऐसे में जिन्हें कोविशील्ड वैक्सीन लगी, उन्हें चिंतित होना चाहिए? बिलकुल नहीं। टीकों से जुड़े कोई भी दुर्लभ और गंभीर दुष्प्रभाव अधिकतर पहला टीका लगने के बाद और 30 मिनट के भीतर और अधिक से अधिक कुछ दिनों और सप्ताह के भीतर होते हैं। अब कोविड के टीके लग नहीं रहे हैं। कारण इतना है कि फिलहाल कोविड एक गंभीर बीमारी नहीं है और इन टीकों की जरूरत नहीं है। अगर जरूरत पड़ी तो उन टीकों को फिर इस्तेमाल किया जाएगा। सभी देशों को टीकों के लाभों को वयस्कों, बुजुर्गों और पहले से मौजूद बीमारियों वाले लोगों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। टीकों से संबंधित खबरों को परिप्रेक्ष्य में रखकर भ्रांतियों को दूर करना भी जरूरी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

By

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Subscribe for notification