मरते हुए रावण से लक्ष्मण जी ने एक सवाल पूछा था- राक्षस राज, क्या आपकी सारी इच्छाएं पूरी हो गईं? तब रावण ने कहा था, रामानुज, इच्छाएं कब किसकी पूरी होती हैं? एक मिटाओ, दूसरी पैदा हो जाती है। इच्छाओं का मुंह मोड़ना पड़ता है। अगर संसार की ओर मुड़ जाएं तो आसक्ति, ईश्वर की ओर मुड़ जाएं तो भक्ति। हम मनुष्यों के भीतर अभिलाषा यानी इच्छा होना स्वाभाविक है और संसार में रहना है तो इस अभिलाषा को आकांक्षा में बदलना पड़ेगा। इसमें कोई बुराई नहीं है। प्रबल इच्छा का नाम ही महत्वाकांक्षा है। और यदि आपको अपनी आकांक्षा को पूरी करना है, तो अपनी ऊर्जा बचाएं। हमारी आदतें अगर अनियंत्रित हैं, तो वो ऊर्जा को पी जाएंगी। आदतों का मतलब होता है लगातार की जाने वाली गतिविधि। दूसरा स्वभाव होता है, जैसे राम जी की आदत थी कि वो किसी की निंदा नहीं करते थे, लेकिन उनका स्वभाव था कि वो किसी को दुखी भी नहीं करते थे। जब हम अपनी महत्वाकांक्षा की यात्रा पर हों, तो उन जगह पर काम करें जहां ऊर्जा समाप्त हो सकती है। पहला किसी से झगड़ा नहीं करें, दूसरा कोई भी काम हड़बड़ी में ना करें, तीसरा कभी किसी की निंदा ना करें, और चौथा अपनी महत्वाकांक्षा की यात्रा में भोग-विलास में न डूबें। अगर कुछ सोचा है तो उसे पूरा जरूर करें।

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