हमारे शास्त्रों में बताया है कि चार युग हैं और चारों युग में अलग-अलग वृत्ति के मनुष्य रहते हैं। अब हम मनुष्यों के भीतर भी चार युग हैं। हम 24 घंटे में चारों युग से गुजरते हैं। ऐसा कहते हैं कि हमारी अशांति का अर्जन हम ही करते हैं और हमारी शांति का सृजन भी हम ही करते हैं। ऐसे ही जो युग हमारे भीतर होगा, हम वैसी ही हरकतें या क्रियाकलाप करने लगेंगे। राम और भरत के इस वार्तालाप के जरिए तुलसीदास जी ने संकेत दिया है- ‘ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेतां नाहिं। द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं।’ ‘ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते। द्वापर में थोड़े से होंगे और कलियुग में तो इनके झुंड के झुंड होंगे।’ इसका मतलब यह है कि जब हमारे भीतर कलियुग उतरता है तो हम उस समय गलत काम करते हैं। द्वापर में एक भ्रम बना रहता है, क्या सही क्या गलत। त्रेता और सतयुग में हम सत्कार्य ही करेंगे। इसलिए हम दिन भर में अपना जो भी मूल्यांकन करें, एक विश्लेषण ये भी करें कि कौन-सा युग हमारे भीतर किस अवधि में सक्रिय हो रहा है। कोशिश तो ये की जाए कि हमारा आचरण सतयुग और त्रेतायुग जैसा हो। भौतिक सफलताएं चाहे जितनी अर्जित कर लें, पर अच्छाई जरूर कमाई जाए।

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