अमेरिका इन दिनों युद्ध के एक नए मोर्चे में उलझा हुआ है और वह है- कॉलेज कैम्पस। वह छात्रों के विरोध-प्रदर्शन की चपेट में आ गया है। इसकी शुरुआत न्यूयॉर्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से हुई और फिर जल्द ही यह उसके अन्य विशिष्ट कॉलेजों के बाद यूरोप तक भी फैल गया। गाजा में युद्ध को लेकर छात्र विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। कॉलेज कैम्पस फिलिस्तीन-समर्थक और इजराइल-समर्थक के खेमों में बंट गए हैं। दोनों के पास अपने-अपने वाजिब तर्क हैं आप इससे इनकार नहीं कर सकते कि इजराइल ने गाजा में कई सीमारेखाओं को लांघा है। लेकिन 7 अक्टूबर को इजराइल के साथ जो हुआ, उससे भी आप नजर नहीं फेर सकते। इसके अलावा, यह भी देखें कि अमेरिका में लगभग 73% यहूदी छात्रों को यहूदी-विरोधी भावनाओं का सामना करना पड़ रहा है। इस्लामोफोबिया को लेकर मुस्लिमों के साथ भी यही हो रहा है। पिछले सात महीनों में अमेरिका में मुस्लिम-विरोधी घटनाओं में 216% का इजाफा हुआ है। इसलिए वहां पर ये दोनों ही समुदाय खुद को खतरे में महसूस करते हैं और अब दोनों ही जमकर विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। हिंसक टकराव हो रहे हैं, छात्रों के निलंबन और गिरफ्तारियों की 2000 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं। अमेरिका से सामने आ रहे दृश्य काफी नाटकीय हैं- शील्ड्स, बैटन्स और स्मोक-बमों से लैस पुलिस- जो इस तरह से दंगों के हालात में ही तैनात होती है, देर रात तक चलने वाले फसाद और छात्रों को हथकड़ियों में घसीटा जाना। यह अमेरिका है- जिसे स्वतंत्रता की धरती कहा जाता है- और वहां कॉलेज परिसरों में पुलिस के द्वारा हिंसक छापे मारे जा रहे हैं! सोचिए अगर ऐसा किसी और देश में हो रहा होता तो? तब अमेरिका नैतिक भाषण देने, और उस पर प्रतिबंध तक लगाने के लिए तत्पर रहता। उनका मीडिया तीखे संपादकीयों से भरा होता। लेकिन अभी वे सभी तटस्थता की आड़ में छुपे हुए हैं। ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ का कहना है कि कॉलेजों का पतन हो गया है। ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ का कहना है कि इजराइल से विनिवेश कारगर नहीं साबित होगा, हालांकि छात्र यही मांग कर रहे हैं। मीडिया में छपने वाले लेख छात्र-आंदोलनों का सूक्ष्म विश्लेषण करते मालूम होते हैं। लेकिन जब किसी और देश में विरोध-प्रदर्शन होता है, तब उनका यह संतुलन कहां चला जाता है? जब दिल्ली में छात्र प्रोटेस्ट करते हैं तब ऐसी कोई बारीकियां नहीं दिखलाई जातीं। तब तो यह ‘बेकसूर छात्र बनाम बुरी सरकार’ की कहानी बना दी जाती है। जब मॉस्को में छात्र आंदोलन होते हैं तो वहां भी यही रवैया दिखलाई देता है। तब इसे ‘युद्ध-विरोधी छात्र बनाम दुष्ट पुतिन’ की तरह दर्शाया जाता है। भारत ने हाल ही में एक टिप्पणी- जो कि अमूमन की नहीं जाती- में इन दोहरे मानदंडों की निंदा की। विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘हर लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जिम्मेदारी की भावना, सार्वजनिक सुरक्षा और व्यवस्था के बीच सही संतुलन होना चाहिए। लोकतंत्रों को विशेष रूप से दूसरे लोकतंत्रों के लिए भी यही समझ दिखानी चाहिए। आखिरकार, हम सभी का मूल्यांकन इस बात से किया जाता है कि हम घर पर क्या करते हैं, न कि हम विदेश में क्या कहते हैं।’ अमेरिका का नाम लिए बिना भारत ने एक सधा हुआ संदेश दे दिया है। दूसरी तरफ अमेरिकी अधिकारी इन प्रोटेस्ट्स के लिए कैम्पस से बाहर के तत्वों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। यहां पर एक बार फिर आपको अमेरिकी-पाखंड के दर्शन होते हैं। जब एशिया या अफ्रीका के विश्वविद्यालयों में आंदोलन होते हैं तो हर प्रदर्शनकारी एक छात्र होता है। तब वहां पर कोई एक्टिविस्ट, राजनेता या विदेशी साजिशकर्ता नहीं होते। लेकिन अमेरिका में जब ऐसा होता है तो उनको इसमें विदेशी ताकतों का हाथ दिखने लगता है! इनमें से अधिकतर प्रदर्शनकारी वामपंथी रुझान वाले हैं। वे राष्ट्रपति बाइडन के वोटर-बेस का हिस्सा हैं। इसलिए बाइडन संभलकर चल रहे हैं। वे उनकी मांगों को मानकर इजराइल से अपने को अलग नहीं कर सकते, लेकिन चुनावी साल में उन्हें नाराज भी नहीं कर सकते। अमेरिका में छात्रों के विरोध-प्रदर्शनों का इतिहास रहा है, जो राजनीतिक विकल्पों को निर्धारित करते हैं। 1960 के दशक में नागरिक-अधिकार आंदोलन से लेकर 1968 में वियतनाम युद्ध और 1980 के दशक में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद शासन के खिलाफ प्रोटेस्ट्स तक, इनका एक लंबा इतिहास रहा है। बाइडन को युवाओं के इस विस्फोट से निपटने के लिए योजना बनानी होगी। लेकिन संकट खत्म होने के बाद क्या अमेरिका अपने रवैए पर विचार करेगा? हम उम्मीद ही कर सकते हैं। जब किसी और देश में विरोध-प्रदर्शन होता है, तब अमेरिका के द्वारा दिखाया जाने वाला संतुलन कहां चला जाता है? जब दिल्ली में छात्र प्रोटेस्ट करते हैं तब तो यह ‘बेकसूर छात्र बनाम बुरी सरकार’ की कहानी बना दी जाती है!
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)