चुनाव के दो राउंड हो चुके हैं, पांच राउंड बाकी हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि टीवी स्टूडियो के भीतर और बाहर लगातार ढोल की थाप के बावजूद लोकतंत्र के ‘उत्सव’ में कम मतदान क्यों हो रहा है? गर्मी, फसलों की कटाई, सप्ताहांत की लंबी छुट्टियां आदि केवल आंशिक रूप से ही मतदान में गिरावट की व्याख्या कर सकती हैं। सच यह है कि देश के कई हिस्सों में लोकतांत्रिक-भावना में गिरावट आई है, जिससे एक आम वोटर अपने सामने मौजूद विकल्पों को लेकर उत्साहित नहीं महसूस करता है। चुनाव से पहले का शोरगुल ‘अबकी बार 400 पार’ के नारे पर केंद्रित था। ऐसा माना जा रहा था जैसे नतीजों का फैसला पहले ही हो चुका है और अब केवल यह देखना बाकी है कि 1984 में राजीव गांधी की 414 लोकसभा सीटों का रिकॉर्ड टूटेगा या नहीं। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव-अभियान आगे बढ़ रहा है, दोनों ही पक्षों को अचानक राज्य-दर-राज्य चुनावी-संघर्ष की ‘लहर-रहित’ जमीनी हकीकत का सामना करना पड़ रहा है। यह अकारण नहीं है कि पहले दौर के मतदान में औसतन 3 प्रतिशत की गिरावट के ठीक एक दिन बाद भाजपा ने अपने सांप्रदायिक-सुर तेज कर दिए थे। कहां तो 2047 तक ‘विकसित भारत’ के वादे के साथ चुनाव-अभियान में प्रवेश किया गया था और कहां डर की राजनीति की जाने लगी। लेकिन जहां डर नुकसानदेह और विनाशकारी हो सकता है, वहीं उम्मीदें सकारात्मक और रचनात्मक होती हैं। जब कांग्रेस के घोषणापत्र की तुलना मुस्लिम लीग से की जाती है तो लगने लगता है कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ की नेक बातें केवल दुनिया की स्वीकार्यता अर्जित करने के लिए ही हैं। लेकिन अगर भाजपा ने लंबे समय से निर्मित अपनी सांप्रदायिक छवि को पुनर्जीवित कर दिया है तो कांग्रेस भी काल्पनिक भय की शिकार हो रही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी रैलियों में संविधान की प्रति लहराते हुए चेतावनी दी है कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो वे दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के लिए आरक्षण खत्म करने के लिए संविधान में संशोधन करेंगे। जबकि औसत मतदाता आजीविका के बुनियादी सवालों से घिरा है और उस पर ये तमाम चुनावी बातें बेअसर साबित हो रही हैं। अगर आप देश की यात्रा करें तो पाएंगे कि नेताओं और नागरिकों के बीच एक स्पष्ट अलगाव है। पिछले पांच साल कई भारतीयों के लिए कठिन रहे हैं : महामारी, लॉकडाउन, महंगाई, नौकरियां छूटना, बेरोजगारी, घटती आमदनी आदि ने कोई ऐसा माहौल नहीं बनाया है कि मतदाता ‘फील-गुड’ करें। दुनिया में ‘उभरता हुआ भारत’ पांच सितारा समारोहों में भले ही चर्चा का विषय हो, लेकिन गर्मी और धूल से जूझते ग्रामीण भारत में आज भी पानी का टैंकर आठ दिनों में केवल एक बार आता है। एक तरफ उत्साहपूर्ण बयानबाजी और दूसरी तरफ जीवन की कठोर वास्तविकताओं के इस अंतर ने ही कई मतदाताओं को मतदान-प्रक्रिया के प्रति उदासीन बना दिया है। महाराष्ट्र का ही उदाहरण लें। पिछले पांच वर्षों में किसी और राज्य ने उसके जैसी राजनीतिक उथल-पुथल नहीं देखी है। वहां पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदले हैं, गठबंधन बने और टूटे हैं और परदे के पीछे सौदेबाजियां चलती रही हैं। यहां तक कि सभी पार्टियों के राजनीतिक कार्यकर्ता भी अब चुनाव-प्रणाली को लेकर उत्साहपूर्ण नहीं दिखते हैं। जब नेता हर कीमत पर सत्ता में बने रहने के लिए लगातार समझौते कर रहे हों और कल के कट्टर विरोधी आज के गठबंधन सहयोगी बन जाते हों तो एक वफादार कार्यकर्ता जमीन पर मेहनत क्यों करेगा? अवसरवादिता ने कार्यकर्ताओं में राजनीति को लेकर संशय पैदा कर दिया है। एक तरफ राजनेता पहले से ज्यादा समृद्ध होते गए हैं, वहीं दूसरी तरफ औसत से कम बारिश के कारण बढ़े कृषि संकट ने विषमता के विकट विरोधाभास रच दिए हैं। मुंबई के सुपर-रिच जहां अपने स्विमिंग पूल में नाश्ता कर रहे होते हैं, वहीं ग्रामीण महाराष्ट्र में टैंकर माफिया 200 रुपए प्रति बाल्टी की दर से पानी बेचते हैं। ऐसे में क्या आश्चर्य कि राज्यभर के ग्रामीण इलाकों में मतदाताओं का अधूरे वादों से मोहभंग हो चुका है। तब सवाल उठता है कि मतदाताओं की इस थकी हुई मानसिकता से चुनावी तौर पर किसे फायदा या किसे नुकसान होगा? भाजपा को पूरा भरोसा है कि एक ऐसे नेता के नेतृत्व में उनकी बेहतर चुनावी ‘संगठन’ मशीन जीत की हैट्रिक सुनिश्चित करेगी, जिस पर जनता को अभी भी उनके प्रतिस्पर्धियों की तुलना में कहीं अधिक भरोसा है। कांग्रेस इस उम्मीद पर टिकी है कि मतदाताओं की उदासीनता उसे कम से कम करीबी मुकाबले वाली सीटों पर लड़ने का मौका जरूर देगी। लेकिन भारतीय लोकतंत्र का संकट ‘भाजपा बनाम विपक्ष’ से कहीं आगे तक जाता है। यह धारणा बढ़ती जा रही है कि चुनाव चाहे कोई भी जीते, मतदाताओं की हार ही हो रही है। ऐसे में जो लोग मतदान नहीं कर रहे हैं, वो भी शायद एक कड़ा संदेश ही दे रहे हैं कि : हमारे वोटों को हल्के में न लें! चुनाव चाहे कोई भी जीते, मतदाताओं की तो हार ही है… भारतीय लोकतंत्र का संकट ‘भाजपा बनाम विपक्ष’ से कहीं आगे तक जाता है। यह धारणा बढ़ती जा रही है कि चुनाव चाहे कोई भी जीते, मतदाताओं की हार ही हो रही है। ऐसे में जो लोग मतदान नहीं कर रहे हैं, वो भी कड़ा संदेश ही दे रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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