केंद्र में नई सरकार को 100 दिन पूरे हो गए हैं। इन 100 दिनों में भाजपा और नरेंद्र मोदी ने यह दिखाने के लिए हरसम्भव प्रयास किया है कि सरकार स्थिर है। कैबिनेट मंत्रियों ने यह जताने में ऊर्जा लगाई है कि भाजपा के बहुमत खोने और यूपी में भारी नुकसान झेलने- जहां 29 सीटें गंवानी पड़ीं- के बावजूद सरकार उतनी ही मजबूत और स्थिर है, जितनी कि 2014 से अब तक थी। भाजपा के सहयोगी नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू भी बार-बार दावा कर रहे हैं कि उन्होंने सरकार को ‘पूर्ण समर्थन’ दिया है। सरकार ‘कुछ भी तो नहीं बदला’ का संदेश देने का प्रयास इतनी तीव्रता से कर रही है कि भले ही भाजपा सत्ता में रहने के लिए सहयोगियों पर निर्भर हो, लेकिन वो इस बात के संकेत भी दे रही है कि वह अपनी मूल विचारधारा पर कायम है और हिंदुत्व या धुर-राष्ट्रवाद के अपने राजनीतिक दृष्टिकोण को कमजोर करने का उसका कोई इरादा नहीं। इससे पहले कि राहुल गांधी अपना अगला बड़ा कदम उठाएं, भाजपा ने यह धारणा बनाने के लिए कड़ी मेहनत की है कि नीतीश, नायडू या शिंदे पर उसकी निर्भरता उसके राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में बाधा नहीं है। सेमीकंडक्टर उद्योग को बढ़ाने के लिए प्रयास करके, सक्रिय विदेश-नीति अपनाकर और कई राज्यों में मेगा परियोजनाओं की घोषणा करके भाजपा उन आवाजों को बंद करने का प्रयास कर रही है, जो दावा कर रही थीं कि ‘सरकार छह महीने नहीं चलेगी!’ ये सच है कि राहुल गांधी को ‘मोहब्बत की दुकान’ वाली राजनीति पर एकाधिकार प्राप्त है, लेकिन वास्तविक राजनीति के धरातल पर वे या उनकी पार्टी के लोग कश्मीर घाटी में जाकर ये नहीं कह पा रहे हैं कि अगर नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन सत्ता में आता है तो अनुच्छेद 370 को फिर से लागू करके जम्मू-कश्मीर को उसका विशेष दर्जा वापस दिलाया जाएगा। मोदी 3.0 के पहले 100 दिनों में हमने देखा कि भाजपा अपने राजनीतिक क्षेत्र में कांग्रेस को एक इंच भी जगह नहीं दे रही है। वक्फ संशोधन विधेयक को पेश करने और कैबिनेट द्वारा एक देश, एक चुनाव को मंजूरी देने की टाइमिंग यह संकेत देने के लिए है कि सरकार का तीसरा कार्यकाल पिछले दो कार्यकालों से अलग नहीं है। वक्फ विधेयक को संसदीय समिति को भेजकर भाजपा ने कुछ भी नहीं खोया। उलटे उसने एक पहल करके ब्रिटिश काल के सबसे संवेदनशील मुद्दों में से एक पर अपनी छाप छोड़ी है। भारत में अनेक किंवदंतियां ‘जमीन’ के बारे में रही हैं। वक्फ विधेयक के राजनीतिक निहितार्थ भी बहुत शक्तिशाली हैं, क्योंकि यह पूरी तरह से जमीन का मामला है। लगता है भाजपा अपनी नाकामियों का विश्लेषण करके इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि चुनावी-संकेत चाहे जो हों, वह अपनी हिंदुत्व की विचारधारा को न तो छोड़ सकती है, न ही कमजोर कर सकती और उसके राष्ट्रवादी तेवर भी ढीले̥ नहीं होंगे। कांग्रेस की सुधरती छवि या राहुल की बढ़ती स्वीकार्यता भाजपा की रणनीति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं ला रही है। प्रधानमंत्री न तो अपना एजेंडा बदल रहे हैं और न ही शासन की नीतियों में बदलाव कर रहे हैं, वे चुपचाप डैमेज-कंट्रोल कर रहे हैं। संघ प्रमुख के बयानों को सावधानी से कम करके आंका जा रहा है और पार्टी के अंदरूनी संघर्षों को छिपाया जा रहा है। योगी आदित्यनाथ को महाराष्ट्र चुनाव तक पूरी छूट दी गई है। यूपी की दस सीटों पर उपचुनाव की कमान भी उन्होंने संभाल रखी है। भाजपा प्रवक्ताओं ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि अगर 2004-2009 में कांग्रेस की 145 सीटों के साथ मनमोहन सरकार चल सकती है, तो भाजपा भी 240 सीटों के साथ स्थिर सरकार चला सकती है। भाजपा ने अपने विरोधियों को दिखाया है कि उनकी पार्टी की संरचना मजबूत है और उसमें गंभीर अंतर्कलह होने पर भी चीजें जल्दी नहीं बिगड़तीं। हालांकि, ‘ऑल इज वेल’ का संदेश फैलाने की भाजपा की कोशिशें जनता की धारणा को बदलने के लिए काफी नहीं होंगी। इसका निर्धारण जम्मू-कश्मीर, झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों से होगा। भाजपा का धारणा-प्रबंधन ज्यादा दिनों तक काम नहीं करेगा। हवा बदलने के लिए महाराष्ट्र में जोरदार चुनावी जीत की दरकार होगी। यूपी में मिले झटके के बाद मोदी की सार्वजनिक छवि बदली है और आने वाले दिनों में महाराष्ट्र के नतीजे उन्हें अपने व्यक्तित्व पर फिर से काम करने में बड़ी मदद कर सकते हैं। अगर भाजपा महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी भी नहीं बन पाती है तो यह मोदी को अपनी इच्छा के विरुद्ध कई समझौते करने पर मजबूर करेगा, जिसका उन्होंने पहले 100 दिनों में बड़े पैमाने पर विरोध किया है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)

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